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________________ र्य उगता है, डूबता भी है। श्वास आती है, जाती भी है। तारे घूमते हैं; मौसम परिवर्तित होते हैं। प्रकृति का विराट कर्म चलता है, लेकिन बिलकुल अकर्म जैसा। वहां कोई कर्ता नहीं है। न तो सूरज उगने के लिए कोई प्रयत्न करता है; न चांद-तारे चलने के लिए कोई आयोजन करते हैं; न फूल खिलने के लिए कोई व्यवस्था जुटाते हैं; न नदियां सागर की तरफ बहने के लिए किसी अस्मिता से, कर्ता के भाव से भरती हैं। मनुष्य को छोड़ कर कर्म कहीं भी नहीं है। गति तो बहुत है, क्रिया बहुत है; लेकिन कर्ता का बोध कहीं भी नहीं है। बीज जब फूटता है और अंकुरित होता है तो कोई भाव पैदा नहीं होता कि मैं फूटता हूं, मैं अंकुरित होता हूं, मैं वृक्ष बनने जा रहा हूं। और जब वृक्ष में फूल खिलते हैं तब भी वृक्ष को नहीं लगता कि मैंने फूल खिलाए हैं। विराट कर्म होता है, लेकिन कर्ता का कोई बोध नहीं है। निश्चित ही, कर्ता का बोध मनुष्य की बीमारी है। इस बात को गहरे से समझना जरूरी है। क्योंकि यह बीमारी बहुत गहरी है, और हमारे प्रत्येक होने के ढंग में प्रविष्ट हो गई है। आप, जो भी हो रहा है, उसे तत्काल कर्म बना लेते हैं। भूख लगती है, जवानी आती है, बुढ़ापा आता है; जीवन जन्मता है और मृत्यु में फिर सब लीन हो जाता है। इस सब में कहीं भी कोई कर्म नहीं है। आप कुछ करते नहीं हैं; यह सब हो रहा है। लेकिन अगर यह सब हो रहा है, इसको आप ऐसा ही देखें, तो अहंकार को खड़े होने की जगह न होगी। तो आप होने को करने में बदलते हैं। जो हो रहा है, उसे आप कर्म बना लेते हैं। और आप कर्म बना कर ही एहसास कर सकते हैं कि मैं हूं। तो कर्म की सारी बीमारी के पीछे मैं को पैदा करने की आकांक्षा है। अगर सब हो रहा है तो आपके होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जैसे ही आप कुछ करते हैं, मैं खड़ा होता है। यह जो हमारा मैं है, सारी दुनिया के धर्म कहते हैं कि यही बाधा है; इसे छोड़ दें, इसे त्याग दें, इसे विनष्ट कर दें। लेकिन मजे की बात यह है कि ताओ जैसे बुद्धत्व को उपलब्ध लोग ही ठीक से समझ पाते हैं कि ये शिक्षाएं गलत हो गईं। क्योंकि जब हम कहते हैं, अहंकार को छोड़ दें, तब भी हम उसे कृत्य बना लेते हैं और कर्म बना लेते हैं। छोड़ेगा कौन? जो छोड़ेगा, वह फिर कर्ता बन गया। अहंकार का त्याग कौन करेगा? अहंकार का नाश कौन करेगा? जो करेगा, वह फिर नया अहंकार निर्मित हो गया। अहंकार का अर्थ ही कर्ता का भाव है। तो अहंकार का त्याग नहीं किया जा सकता; कोई उपाय नहीं है। क्योंकि आप त्याग करेंगे तो वह जो त्याग करने वाला है वह एक नया अहंकार निर्मित हो गया। पुराना गया, नया बना। और नया निश्चित ही पुराने से ज्यादा खतरनाक होगा, ज्यादा सूक्ष्म होगा, ज्यादा ताजा होगा, ज्यादा शक्तिशाली होगा। और फिर उसे पहचानने में जन्म लग जाएंगे। 103
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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