________________
ताओ उपनिषद भाग ३
86
तरह लोगों को काटा। नसरुद्दीन के बर्दाश्त के बाहर हो गया। नसरुद्दीन ने खड़े होकर कहा कि हमें भी जवानी की याद आती है; एक दफा ऐसा हमने भी भाजी -मूली की तरह लोग काट दिए थे। दस-पंद्रह आदमियों के पैर तो एक झपट्टे में काट दिए थे। उस योद्धा ने कहा, पैर ? कभी सुना नहीं। अगर आप सिर काटते तो ज्यादा बेहतर होता । नसरुद्दीन ने कहा, सिर तो कोई पहले ही काट कर ले जा चुका था ।
मगर बड़ा कठिन हो गया उसको रुकना । नसरुद्दीन, हमारे भीतर वह जो बचकाना अहंकार छिपा है, उसका ही प्रतीक है। अगर कोई ईश्वर को जानने की बात कर रहा है तो फिर आप से नहीं रहा जाता। आप भी कुछ कहेंगे । ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो बिना जाने न बोलता हो। हम सब बिना जाने बोलते रहते हैं । हम बिना जाने बताते रहते हैं। हम बिना जाने सलाह देते रहते हैं।
इमर्सन ने लिखा है अपनी डायरी में कि अगर दुनिया में लोग बिना जाने सलाह देना बंद कर दें तो पृथ्वी किसी भी दिन स्वर्ग हो सकती है।
लेकिन जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, उनके भी मन में यह तो मजा आता ही है कि कोई जाने कि हमें पता है । यह मजा इतना महंगा है! और इसके पीछे कुछ लोग तो अपने जीवन को भी ढाल लेते हैं; बड़ा कष्ट भी उठाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि ऐसे लोग दूसरों को धोखा दे रहे हों; ऐसे लोग अपनी आंख में अपने को धोखा देने के लिए बड़े कष्ट भी उठाते हैं। अब एक आदमी है कि एक ही बार भोजन करता है, नग्न रहता है, घास पर सोता है, मकान में नहीं ठहरता। कम कष्ट नहीं उठा रहा है, कष्ट पूरा उठा रहा है। लेकिन सिर्फ एक भरोसा दूसरे लोगों को दिलाने के लिए अगर कष्ट उठाया जा रहा है कि मैं साधु हूं तो सारा कष्ट व्यर्थ जा रहा है।
बुद्ध ने कहा है कि नासमझ तप भी करते हैं तो भी नरक ही जाते हैं। नासमझ तप भी करते हैं तो भी नरक की ही यात्रा करते हैं।
उनकी नासमझी का आधार क्या है ? हमारे सारे अज्ञान का आधार क्या है ?
दूसरे आदमी को दर्पण की तरह व्यवहार करना सारे अज्ञान का आधार है। दूसरे की फिक्र छोड़ दें और सीधी अपनी फिक्र करें। मैं क्या हूं, इसे मैं पहले जान लूं। और मजा यह है कि जो यह जान लेता है कि मैं क्या हूं, कौन हूं, उसकी बिलकुल आकांक्षा नहीं रह जाती कि कोई मुझे जाने। यह बात ही समाप्त हो जाती है। स्वयं को जानते ही दूसरे को प्रभावित करने की वृत्ति विलीन हो जाती है।
और लाओत्से कहता है, ऐसे ही वे लोग हैं, वे अपने को प्रकट नहीं करते और इसीलिए ही वे दीप्त बने रहते हैं। जो अपने को प्रकट करते हैं, वे क्षीण और दीन हो जाते हैं।
प्रकट करने में भी शक्ति, ऊर्जा खोती है। जो अपने को छिपा कर रखता है, जैसे अंगारा छिपा हो, जैसे सूरज छिपा हो, प्रकट न हो, उसकी सारी ऊर्जा बची रहती है। प्रकट करने में भी शक्ति का व्यय है । और शक्ति का व्यय ही दीप्ति का खो जाना है। अगर कोई व्यक्ति अपने को प्रकट करने की वासना से छुटकारा दिला ले तो उसके भीतर जैसे सूरज आ जाए, सारी ऊर्जा भीतर इकट्ठी होने लगे। वह जो दूसरे को हम प्रभावित करने जाते हैं तो हम व्यय होते हैं, चुकते हैं। दूसरे को प्रभावित करने की चेष्टा में जरूरी नहीं है कि दूसरा प्रभावित होगा । इतना पक्का है कि हम क्षीण होंगे, हम दीन होंगे, हम चुकेंगे, हमारी जीवन-ऊर्जा कम होगी।
दूसरा प्रभावित होगा कि नहीं, यह बहुत मुश्किल है। क्योंकि दूसरा भी हमारे पास हमें प्रभावित करने आता है । वह कोई प्रभावित होने नहीं आता। आप ध्यान रखना कि कई बार जब कोई आदमी आप से प्रभावित भी होता है तो थोड़ा सोच-समझ लेना, हो सकता है यह आपको प्रभावित करने का उसका ढंग हो । आदमी की चालाकियों का अंत नहीं है। अगर किसी को प्रभावित करना हो तो पहला रास्ता है उससे प्रभावित होने का ढोंग करना। क्योंकि यह