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नुष्य की तीव्र आकांक्षा है कि दूसरे उसे जानें और दूसरे उसे पहचानें। इस आकांक्षा का मौलिक कारण क्या है? मौलिक कारण है कि मनुष्य स्वयं को नहीं जानता और स्वयं को नहीं पहचानता। यह एक गहरी कमी है। और इस कमी को वह दूसरों से सम्मान पाकर, नाम पाकर, श्रेय पाकर भर लेना चाहता है। जो हमारे पास नहीं है, वह हम दूसरों से उधार मांग लेना चाहते हैं। लेकिन कितने ही लोग जान लें और कितने ही लोग पहचान लें, जो अपने को ही नहीं पहचानता है, उसका जो गड्ढा है, जो कमी है, वह दूसरों के पहचान लेने से भर नहीं सकता। और जब मैं अपने को ही नहीं जानता तो मैं लोगों को भी क्या पहचनवा सकूँगा कि मैं कौन हूं। एक झूठ होगा।
लेकिन अगर बहुत लोग उस झूठ को दोहराने लगें तो मुझे भी भरोसा आ जाएगा। हमारे सच और झूठ में बहुत फर्क नहीं होता। हमारे सच और झूठ में इतना ही फर्क होता है कि जिस झूठ पर हम भरोसा करते हैं, वह हमारा सच हो जाता है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-और हिटलर ने बड़ी महत्वपूर्ण बातें लिखी हैं, वह आदमी महत्वपूर्ण था—उसने लिखा है कि सत्य और असत्य में मैंने कोई ज्यादा फर्क नहीं पाया। असत्य को बार-बार दोहराते रहो, धीरे-धीरे सत्य हो जाता है। और यह वह अनुभव से कहा है। उसने खुद बहुत असत्य दोहराए और वे सत्य हो गए। और वे इतने सत्य हो गए कि दूसरों ने उन्हें सत्य माना सो माना ही, हिटलर भी उन पर भरोसा करने लगा।
अगर आप एक झूठ लोगों से कहते रहें तो थोड़े दिन में आप भी भूल जाएंगे कि वह झूठ है। पुनरुक्ति विस्मरण बन जाती है। पुनरुक्ति, बार-बार दोहराने से, सत्य की जन्मदात्री हो जाती है-उस सत्य की जो हमारा सत्य है। इसलिए हमारे सत्य में और झूठ में इतना ही फर्क होता है: झूठ कम दोहराया गया है और सत्य ज्यादा दोहराया गया झूठ है।
इसीलिए पुराने झूठ बहुत सत्य मालूम पड़ते हैं; क्योंकि हजारों साल से आदमी उन्हें दोहरा रहा है। नया सत्य भी झूठ मालूम पड़ता है; क्योंकि वह दोहराया नहीं गया, अभी नया है। तो हम पुराने झूठ को भी मान लें; नए सत्य को मानने की तैयारी नहीं होती। क्योंकि हमारे लिए सत्य का एक ही अर्थ होता है। कितना दोहराया गया है।
इसलिए हम पूछते हैं कि कोई शास्त्र कितना पुराना है। जितना पुराना, उतना सत्य। इसलिए सभी धर्मों के लोग अपने शास्त्र को बहुत पुराना सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। अगर कोई सिद्ध करे कि उतना पुराना नहीं है तो उन्हें बड़ी पीड़ा होती है। वे चाहते हैं कि उनका धर्मग्रंथ सबसे ज्यादा पुराना हो तो सबसे ज्यादा सत्य हो जाएगा। क्योंकि हमारे मन में सत्य का यही अर्थ है : कितनी बार दोहराया गया। पुराना होगा तो ही ज्यादा दोहराया गया होगा।
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