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ताओ हैं झुकने, वाली छोडे व मिटने की कला
अपने सिवाय अपने पास और कुछ भी नहीं है, यह अर्थ है अभाव का। अपने सिवाय अपने पास और कुछ भी नहीं है। और इसलिए मौत भी अरिस्टीपस से कुछ छीन न पाएगी। इसका यह मतलब नहीं है कि आपके पास कुछ भी न हो। इसका यह मतलब भी नहीं है कि अरिस्टीपस के पास भी कुछ न था। कम से कम छड़ी तो थी ही। इसका मतलब कुल इतना है कि वह जो परिग्रह का भाव है कि मेरे पास यह है, यह है, यह है, वही दुख का कारण बनेगा। क्या है, क्या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। भीतर संपत्ति को पकड़ने की जो वृत्ति है, कि मेरे पास है, मेरा है, वही दुख का कारण बनेगा। और वही चिंताओं का जन्म है।
'अभाव है संपदा।' कुछ भी नहीं है तो उसी के साथ सारी चिंताएं भी विलीन हो गईं। यह एक आंतरिक दशा है।
एक छोटी सी कहानी, जो मुझे बहुत प्रीतिकर रही है। एक सम्राट एक साधु के प्रेम में पड़ गया। साधु था भी अदभुत। मोह बढ़ता गया सम्राट का। आखिर सम्राट ने एक दिन कहा कि इस वृक्ष के नीचे न पड़े रहें, मेरे महल में चलें। साधु उठ कर तत्क्षण खड़ा हो गया। उसने कहा, चलो।
सम्राट बड़ा चिंतित हुआ। सोचा था, साधु कहेगा, कहां संसार में उलझाते हो! महल? हम महल नहीं जा सकते; हम सब त्याग कर दिए हैं। सम्राट भी प्रसन्न होता अगर साधु ऐसा कहता। और सम्राट और जोर से आग्रह करता कि नहीं महाराज, चलना ही पड़ेगा। पैर पकड़ता, हाथ-पैर जोड़ता और सोचता, महा तपस्वी है।
साधु खड़ा ही हो गया। भिक्षा का पात्र उठा लिया, जो थोड़े-बहुत पोटली में बंधे हुए कपड़े-लत्ते थे दो-चार, वे कंधे पर टांग लिए और कहा, कहां है रास्ता?
सम्राट के बिलकुल प्राण निकल गए। उसने कहा, कहां नासमझ, किस साधारण आदमी के पीछे मैंने इतने दिन गंवाए। यह तो तैयार ही बैठे थे। प्रतीक्षा ही थी। सिर्फ हमारी राह ही देख रहे थे। हम भी बुद्ध निकले।
लेकिन अब कह ही चुके थे, फंस ही गए थे, तो रास्ता भी बताना पड़ा, लेकिन बड़े बेमन से। महल पहुंचते-पहुंचते साधु तो विदा ही हो चुका था। साधु तो बचा ही नहीं-उसी क्षण, जब साधु खड़ा हो गया चलने के लिए। अब तो एक जबर्दस्ती का मेहमान था, बिना बुलाया मेहमान। लेकिन अब कह दिया था सम्राट को तो उसे ठहराना था। उसे ठहरा दिया। परीक्षा की दृष्टि से ही श्रेष्ठतम जो भवन था, उसमें ही ठहराया। अच्छे से अच्छे जो भोजन थे, वही व्यवस्था की। अच्छे से अच्छे कपड़े! और साधु गजब का था-साधु था ही नहीं सम्राट की नजरों में जो भी कहता, करने को राजी हो जाता। कहा, ये कपड़े छोड़ दो, वह उतार कर तत्काल खड़ा हो गया। कीमती वेशभूषा पहना दी, पहन लिया। बड़े शानदार बिस्तरों पर सोने को कहा, मजे से सो गया। सुंदरतम स्त्रियां सेवा में लगाईं, पैर फैला दिए। सम्राट ने कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया। एक दफा तो यह न कहे!
पंद्रह दिन में ही सम्राट ऊब गया और घबड़ा गया। एक दिन सुबह आकर उसने कहा, महाराज, बहुत हो गया। मुझमें और आप में कोई फर्क ही नहीं है। साधु ने कहा, फर्क? जानना कठिन है। लेकिन अगर जानना चाहते हो तो मेरे पीछे आओ। साधु ने कपड़े सम्राट के वापस उतार कर रख दिए, अपने कपड़े पहन लिए, अपना डंडा उठा लिया, अपनी झोली, अपना भिक्षा-पात्र, बाहर निकल आया महल के। सम्राट पीछे-पीछे चला। नदी आ गई। सम्राट ने कहा, अब बता दें। उस फकीर ने कहा, जरा नदी के उस पार। नदी के पार भी निकल गया। सम्राट बोला, अब बता दें वह भेद। उसने कहा, थोड़ा और आगे। राज्य की सीमा आ गई। सम्राट ने कहा, अब? उस फकीर ने कहा, अब मैं पीछे नहीं जाना चाहता; अब तुम भी मेरे साथ ही चलो। सम्राट ने कहा, यह कैसे हो सकता है? मेरा महल है पीछे; मेरा राज्य है। उस फकीर ने कहा, अगर तुम्हें समझ में आ सके फर्क तो समझ लेना। मेरा कोई महल पीछे नहीं है, मेरा कोई राज्य पीछे नहीं है। मैं तुम्हारे महल में था, लेकिन तुम्हारा महल मुझमें नहीं है।
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