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ताओ उपनिषद भाग ३
चाहिए कि इस सभा का सभापति मैं हूं। नसरुद्दीन ने कहा, यह खयाल आपका भ्रम है। मेरी तो सदा की मान्यता यह है कि जहां मैं बैठता है, वही जगह अध्यक्ष की जगह है। जहां मैं बैठता है, वही जगह अध्यक्ष की जगह है। जो समझदार हैं, वे मुझे पहले ही अध्यक्ष की जगह बैठा देते हैं। जो नासमझदार हैं, उनकी सभा गड़बड़ होती है। इस गांव में मैं ही अध्यक्ष हूं।
हमारा तर्क भी यही है, जो नसरुद्दीन का तर्क है। लाओत्से से हम राजी न होंगे। हमारा मन कहेगा, यह भी कोई बात हुई कि जहां लोगों ने जूते उतार दिए हैं, वहां बैठ गया। होना तो ऐसा चाहिए कि जहां बैठे, वहीं अध्यक्ष का पद आ जाए। हमारा भी मन यही कहेगा। आदमी की नासमझी का वही तर्क है।
लाओत्से के चिंतन का जो मौलिक आधार है, वह यही है कि तुम जीतने जाने की वासना से मत भरना; आखिर में हारे हुए लौटोगे। तुम अपेक्षा ही मत करना प्रशंसा की; अन्यथा तुम निंदा पाओगे। ऐसा नहीं है कि तुम अपेक्षा न करोगे तो लोग निंदा करेंगे ही नहीं। लेकिन तब उनकी निंदा तुम्हें छुएगी नहीं। तुम अपेक्षा नहीं करोगे तो भी लोग निंदा कर सकते हैं। लेकिन तब तुम्हें उनकी निंदा छुएगी नहीं।
छुती क्यों है निंदा? कहां छूती है? प्रशंसा की जलं आकांक्षा होती है, वहीं निंदा छूती है, वहीं घाव है। इच्छा होती है कि नमस्कार करो, और आप एक पत्थर फेंक कर मार गए। सोचा था फूल लाएंगे, और वह पत्थर ले आए। वह जो घाव है, पत्थर से नहीं लगता, ध्यान रखना; वह जो फूल की आकांक्षा थी, उसकी वजह से ही जो कोमलता भीतर पैदा हो गई, उस पर ही घाव बनता है पत्थर का। आकांक्षा न थी फूल की तो कोई पत्थर भी मार जाए तो सिर्फ दया आएगी कि बेचारा क्यों मेहनत कर रहा है। व्यर्थ इसका उपाय है, नाहक की इसकी चेष्टा है।
बुद्ध पर कोई थूक गया है। तो उन्होंने पोंछ लिया अपनी चादर से और उस आदमी से कहा, कुछ और कहना है कि बात पूरी हो गई? आनंद बहुत आगबबूला हो गया, पास में ही बैठा था। उसने कहा, यह सीमा के बाहर है बात। हद हो गई, यह आदमी थूकता है। हमें आज्ञा दें, इस आदमी को बदला चुकाया जाना जरूरी है।
बुद्ध ने कहा, आनंद, तुम समझते नहीं। जब आदमी कुछ कहना चाहता है तो कई बार भाषा बड़ी कमजोर पड़ती है। यह आदमी इतने क्रोध में है कि शब्द और गालियां बेकार हैं; यह थूक कर कह रहा है। यह कुछ करके कह रहा है। जब कोई बहुत प्रेम में होता है, गले लगा लेता है। अब यह भी कहना बेकार है कि मैं बहुत प्रेम में हूं। जब आदमी के शब्द कमजोर पड़ जाते हैं तो कृत्य उसे जाहिर करता है। आनंद, तू नाहक नाराज हो रहा है। इस बेचारे को देख, इसका क्रोध बिलकुल उबल रहा है।
उबल तो क्रोध आनंद का भी रहा था। बुद्ध ने आनंद से कहा, लेकिन यह आदमी माफ किया जा सकता है, क्योंकि इसे जीवन के रहस्यों का कुछ भी पता नहीं है। तुझे माफ करना मुझे भी मुश्किल पड़ेगा। और फिर मजे की बात आनंद, कि गलती इसने की है-अगर गलती भी की है लेकिन तू अपने को दंड क्यों दे रहा है? इसका कोई संबंध ही नहीं है। यह आदमी मेरे ऊपर थूका है। गलती भी अगर इसने की है, तो इसने की है। तू आगबबूला होकर अपने को क्यों जला रहा है?
बुद्ध ने कहा है, दूसरों की गलतियों के लिए लोग अपने को काफी दंड देते हैं। दूसरों की गलतियों के लिए।
लेकिन हमारे खयाल में नहीं बैठता। मुल्ला नसरुद्दीन के पास कोई पूछने आया है। गांव में अकेला लिखा-पढ़ा आदमी है, जैसे कि लिखे-पढ़े होते हैं। खुद भी लिखता है तो पीछे खुद भी ठीक से पढ़ नहीं पाता। मगर गांव में अकेला ही है। और अकेला होने से कोई प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता भी नहीं है। एक आदमी ने आकर पूछा है कि मुझे कोई आदेश दें, कोई धर्म की आज्ञा दें, कोई नियम मुझे बताएं, जिस पर चल कर मैं भी सार्थक हो सकू। नसरुद्दीन ने बहुत सोचा और फिर जो कहा, वह पिटा-पिटाया एक सिद्धांत था, जो कि विचारक अक्सर सोच-सोच