SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ताओ उपनिषद भाग ३ सदाचरण है। उस दिन के बाद उसके आचरण में चेष्टा नहीं है। उस दिन के बाद वह जो भी कर रहा है, वह सोचा-विचारा, आयोजित, पूर्व-निर्धारित नहीं है। उस दिन के बाद जो भी उससे हो रहा है, वही धर्म है। हम सोचते हैं, धार्मिक आचरण से धार्मिक आदमी पैदा होता है। लाओत्से कहता है, उलटी है बात; धार्मिक आदमी से धार्मिक आचरण पैदा होता है। हम सोचते हैं, आचरण बदलेंगे तो धार्मिक हो जाएंगे। लाओत्से कहता है, धार्मिक हो जाओ तो आचरण बदल जाएगा। और यह सूत्र सिर्फ भाषा का भेद नहीं है; पूरे जीवन की आमूल दृष्टि अलग हो जाती है। आचरण से जो शुरू करता है, वह परिधि से शुरू करता है, ऊपर-ऊपर भटकता है। जो अंतस से शुरू करता है, वह केंद्र से शुरू करता है। और ध्यान रखें, केंद्र बदल जाए तो परिधि बदल जाती है। लेकिन परिधि की बदलाहट से केंद्र नहीं बदलता। अगर केंद्र बदल जाए तो परिधि अनिवार्यरूपेण बदल जाती है। क्योंकि परिधि केंद्र का फैलाव है। लेकिन परिधि को बदल दें आप, बिलकुल भी बदल दें, तो भी केंद्र नहीं बदलता। क्योंकि परिधि निष्प्राण है; केंद्र प्राण है। केंद्र आधार है; परिधि तो केवल बाहरी व्यवस्था है। एक वृक्ष के पत्तों को हम काट दें; वृक्ष नहीं बदलता। बल्कि एक पत्ते की जगह चार पत्ते निकल आते हैं। हम जो करते हैं आचरण में, वह यही पत्ते काटते रहते हैं। और पत्ते काटने का मतलब आचरण को होता है कलम; कलम कर रहे हैं आप। बेईमानी काटें; दोहरी बेईमानियों के दो पत्ते पैदा हो जाते हैं। चोरी काटें; चोरी नए रास्ते से शुरू हो जाती है। झूठ काटें; पच्चीस नए झूठ जन्म ले लेते हैं। लाओत्से कहता है, जड़ काटें। फिर पत्ते नहीं काटने पड़ते। फिर कोई फिक्र नहीं है; पत्तों की बात ही छोड़ दो। वे अपने से गिर जाते हैं, और दुबारा नहीं आते। केंद्र को बदलना जड़ को बदलना है। तो अब मैं दोहरा दूं: क्षुद्र है आचरण वह, जो व्यवहार के परिवर्तन से पैदा होता है। परम है आचरण वह, जो अंतस की क्रांति से जन्मता है। क्षुद्र आचरण उपादेयता पर निर्भर होता है, परम आचरण आनंद पर। परम आचरण सहज है, क्षुद्र आचरण खींचा हुआ, सोचा हुआ, प्रयोजन, प्रयास, यत्न, व्यायाम है। क्षुद्र आचरण और अनाचरण में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। परम आचरण दूसरे ही लोक की बात है। जैसे जमीन पर चलते-चलते कोई आकाश में उड़ने लगे, इतना अंतर है। पंख लग जाएं और यात्रा की सारी भूमि बदल जाए! आज इतना ही। पांच मिनट रुकें; कीर्तन करें; फिर जाएं। 60
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy