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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ 'दुर्ग्राह्य और पकड़ के बाहर, तथापि उसमें ही समस्त विषय निहित हैं। अंधेरा और धुंधला, फिर भी छिपी है जीवन-ऊर्जा उसी में।' अंधेरा और धुंधला! जिनको बाहर देखने की गहन आदत पड़ गई है, भीतर जाकर उन्हें पहले अंधेरा ही दिखाई पड़ेगा। इस प्रतीक के कई अर्थ हैं, वे खयाल में ले लेने चाहिए। एक, अगर आप अपने घर के बाहर दोपहरी में बहुत देर रह गए हैं, तो घर में प्रवेश करते ही आपको अंधेरा मिलेगा। अंधेरा वहां है नहीं। आपकी आंखें नियोजित होने में, एडजस्ट होने में थोड़ा समय लेंगी। और अगर आपकी आंखों का फोकस बिलकुल ही ठहर गया है बाहर के लिए ही तो फिर घर में अंधेरा ही रहेगा। आंख तो पूरे वक्त अपना फोकस बदल रही है। आंख तो एक चलित व्यवस्था है। पूरे समय प्रकाश ज्यादा है तो आंख छोटी हो जाती है; प्रकाश कम है तो आंख बड़ी हो जाती है। आंख पूरे समय समायोजन कर रही है जगत के साथ। अगर आप सूरज की तरफ बहुत देर देखते रहें तो आंख इतनी छोटी हो जाती है कि जब आप भीतर आएंगे कमरे के तो बिलकुल अंधेरा मालूम पड़ेगा। सूरज की तरफ अगर कोई बहुत ज्यादा देखता रहे तो अंधा भी हो सकता है। अंधे का अर्थ कि उसकी आंख का फोकस अगर जड़ हो जाए... क्योंकि तंतु बहुत कोमल हैं, सूरज बहुत कठोर है। अगर उन पर बहुत देर अभ्यास किया जाए सूरज को देखने का, तो तंतु सिकुड़ भी सकते हैं, जल भी जा सकते हैं। फिर घर के भीतर अंधेरा ही रहेगा। अंधेरा, अगर हम ठीक से समझें तो आंख की गत्यात्मकता पर निर्भर है। जिसको हम अंधेरा कहते हैं, उसमें भी कुछ पशु हैं, पक्षी हैं, जो बराबर देखते हैं। उनकी आंख हमसे ज्यादा गत्यात्मक है। उनकी आंख हमसे ज्यादा सरलता से तरल है। वे अंधेरे में भी देख पाते हैं। अंधेरा आंख पर निर्भर करता है। एक बात ठीक से समझ लें, अंधेरा और प्रकाश आंख पर निर्भर करते हैं। लाओत्से कहता है, अंधेरा और धुंधला! क्योंकि जो जन्मों-जन्मों तक बाहर भटके हैं और जिनकी आंख का फोकस ठहर गया है बाहर के लिए, जिन्होंने भीतर कभी झांक कर नहीं देखा, जब पहली बार झांक कर देखेंगे तो घुप्प अंधेरा पाएंगे। इसलिए जो लोग भी गहरे ध्यान में जाते हैं, वे लोग एक न एक दिन घबड़ा कर बाहर लौट आते हैं। इतना घनघोर अंधेरा मिलता है कि भय हो जाता है। और किताबों में लिखी हुई है दूसरी ही बात। किताबों में लिखा है कि महान प्रकाश वहां होगा। यह पढ़ा हुआ है कि महान प्रकाश वहां होगा। और जब भीतर जाते हैं, पाते हैं अंधेरा। तो लगता है, भटक जाएंगे; निकलो बाहर। घबड़ाहट होती है। और बाहर का अंधेरा इतना अंधेरा नहीं मालूम होता, जितना भीतर का अंधेरा अंधेरा मालूम होगा। अपरिचित लोक है बिलकुल, आंख की बिलकुल क्षमता वहां देखने की रही नहीं है। फिर बाहर तो अंधेरा कितना ही हो, पता है हमें कि कोई न कोई और बहुत लोग मौजूद हैं। भीतर के अंधेरे में तो आप बिलकुल अकेले रह जाते हैं। वहां कोई भी मौजूद नहीं है। अकेलेपन का डर भी पकड़ता है। अंधेरा भी घबड़ाता है। घबड़ाहट में बाहर आ जाता है आदमी। लाओत्से कहता है, भीतर है अंधेरा, धुंधला। यह जो, यह जो अंधेरा है, यह विरोध नहीं है उन सूत्रों का, जिन्होंने कहा है कि भीतर परम प्रकाश है। भीतर तो परम प्रकाश है। लेकिन उस परम प्रकाश को देखने की आंख धीरे-धीरे, धीरे-धीरे विकसित होती है; भीतर जाकर धीरे-धीरे विकसित होती है। थके-मांदे, दोपहरी में बाहर से लौटे हैं, बैठ जाते हैं दो क्षण घर में आकर; धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अंधेरा कम हो जाता है, घर प्रकाशित मालूम होने लगता है। कभी रात के अंधेरे में उठ आएं और शांति से अंधेरे को देखते रहें तो एक चमत्कार दिखाई पड़ेगा। जैसे-जैसे शांति से अंधेरे को देखेंगे, अंधेरा कम होने लगेगा। अगर देखते ही रहें अंधेरे में तो आपके पास चोर की आंखें 54
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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