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ताओ उपनिषद भाग ३
सहना
को आपको खींचते रहना चाहिए। नीचे जो आपका पैर खींच रहे हैं उनसे बचाव करना चाहिए और ऊपर जो आपसे बचने की कोशिश कर रहे हैं उनका पैर जोर से पकड़े रहना चाहिए; तब आप अपनी कुर्सी पर रह सकते हैं। यह बड़ा डायनामिक प्रोसेस है। यह कोई थिर घटना नहीं है। यह एक प्रक्रिया है, जो चौबीस घंटे जारी रहती है, सोते-जागते।
अगर आप मिनिस्टर हैं तो डिप्टी मिनिस्टर आपके पैर से झूमे रहेंगे और आप चीफ मिनिस्टर का पैर पकड़े रहेंगे। इस खींचमखांच में आप अपनी कुर्सी भी बचा सकते हैं, और अगर बहुत शोरगुल और बहुत उपद्रव मचाएं तो आगे की कुर्सी पर भी जा सकते हैं। और अगर जरा सुस्ती हो जाए और हाथ छूट जाए तो चारों खाने चित्त नीचे भी पड़ सकते हैं।
अगर जगत में हम देखें तो हम सब पकड़े हुए हैं। और ऐसा नहीं कि यह पकड़ सूक्ष्म है।
हम यहां इतने लोग बैठे हुए हैं। किसी को यह खयाल नहीं हो सकता कि सब के हाथ एक-दूसरे की जेब में हैं। लेकिन हैं। अगर हम सारी दुनिया की भीतरी व्यवस्था पर नजर डालें, भीतरी इकोनामिक्स पर नजर डालें, तो हर आदमी का हाथ दूसरे की जेब में मिलेगा। मिलेगा ही। और जो बहुत कुशल हैं, वे एक हाथ की जगह हजार हाथ कर लेते हैं, हजार हाथ हजार जेबों में डाल देते हैं। जिसके जितने ज्यादा हाथ हैं, जितनी जेबों में डाल सकता है, जितनी जेबों को पकड़ सकता है, उतना धन उसके पास होगा।
चेस्टरटन एक दिन बगीचे में घूमता था, एक नाटककार। मित्र एक साथ था। चेस्टरटन की सदा आदत थी-अपने खीसों में हाथ डाल कर घूमना। मित्र ने पूछा कि क्या कभी ऐसा भी हो सकता है कि एक आदमी जिंदगी भर अपने खीसों में हाथ डाले बिता दे। चेस्टरटन ने कहा, हो सकता है। हाथ अपने होने चाहिए, जेब दूसरों की। अपनी ही जेब में हाथ डाले जिंदगी बितानी बहुत मुश्किल है।
हम सब के हाथ दूसरों की जेब में फैले होते हैं। आर्थिक संरचना यही है। इसमें जो ढीला करेगा, छोड़ेगा; उसके हाथ से सब छूट जाएगा। स्वभावतः, जिंदगी में सब चीजें पकड़ने से मिलती हैं। तो हम सबको खयाल होता है कि परमात्मा भी पकड़ने से मिलेगा, आत्मा भी पकड़ने से मिलेगी, ताओ भी पकड़ने से मिलेगा। वहीं तर्क की भूल हो जाती है। बाहर जो भी पाना हो, पकड़ने से मिलेगा। क्योंकि बाहर जो भी है, उसमें कुछ भी आपका नहीं है। जो दूसरे का है, उसकी छीना-झपटी करनी ही पड़ेगी। पकड़ कर रखना पड़ेगा। और तब भी ध्यान रखना, कितना ही पकड़ो, आज नहीं कल छूट जाएगा। मिलेगा पकड़ने से, क्योंकि आपका नहीं है। फिर भी छूट जाएगा। कम से कम मौत तो आपकी मुट्ठी को खोल ही देगी। बाहर पकड़ने से ही मिलेगा।
भीतर सूत्र उलटा हो जाता है। वहां तो जो है, वह हमारा है ही। उसे हम न भी पकड़ें तो भी हमारा है। उसे हम न भी पकड़ें तो भी छूटेगा नहीं। स्वभाव का अर्थ होता है, जिसका हमसे अलग होने का कोई उपाय नहीं है। स्वभाव का अर्थ होता है मौत भी जिसे हमसे अलग न कर सकेगी। जिसका हमसे अलग होने का उपाय नहीं है, जो हम हैं। तो उसे पकड़ने के पागलपन में नहीं पड़ना। उसे पकड़ने की जरूरत ही नहीं है। अगर यह पकड़ने की आदत को लेकर कोई भीतर चला जाए और आत्मा को पकड़ने लग जाए, तो कठिनाई में पड़ता है।
अंग्रेज विचारक ह्यूम ने कहा है कि सुन-सुन कर, पढ़-पढ़ कर बहुत लोगों की बातें कि आत्मा को जानो, नो दायसेल्फ, एक दिन मुझे भी हुआ कि मैं भी देखू यह आत्मा क्या है। गया भीतर, बड़ी पकड़ने की कोशिश की, बड़ा दौड़ा, सब उपाय किए, सब तरह के व्यायाम लगाए भीतर, लेकिन आत्मा बिलकुल पकड़ में नहीं आई। पकड़ में दूसरी चीजें आईं; कहीं कोई विचार पकड़ में आया; कहीं कोई भाव पकड़ में आया; कहीं कोई वासना पकड़ में आई; कहीं कोई इच्छा पकड़ में आई। आत्मा बिलकुल पकड़ में नहीं आई। स्वभावतः, ह्यूम विचारक था, तर्कवादी था, उसने अपनी डायरी में लिखाः जो चीज पकड़ में नहीं आती, वह नहीं है। होने का सबूत है पकड़ में आना।
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