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संत की वक्रोक्तियांः संत की विलक्षणताएं
जो छिपा है, सबका जो आधार है। रूप जब मिट जाते हैं, तो जिसमें गिरते हैं; और रूप जब उठते हैं, तो जिससे उठते हैं। प्रकृति का अर्थ है : वह तत्व जो रूप लेने के पहले था।
लाओत्से कहता है, वही मां है, वही मूल स्रोत है; मैं उसी से जीता हूं। मेरा अपना कोई लक्ष्य नहीं है। उस प्रकृति का कोई लक्ष्य मुझसे हो, पूरा हो जाए। न हो, कोई एतराज नहीं है। अगर वह प्रकृति मुझे चाहती है कि मैं बेकार ही रहूं और खो जाऊं तो यही मर्जी पूरी हो। अगर कोई काम उसे लेना हो, काम ले ले। लेकिन मेरी अपनी तरफ से निर्धारित कोई नियति, कोई डेस्टिनी नहीं है।
यही समझने जैसा है। लाओत्से कहता है, छोड़ता हूं अपने को मैं उसी पर, जिससे मैं पैदा हुआ और जिसमें मैं कल खो जाऊंगा। मैं बीच में बाधा क्यों हूँ? मैं क्यों कहूं कि मुझे मोक्ष चाहिए? जब मुझे अपने होने का पता नहीं, जब मैं अपने को पैदा नहीं कर सकता, तो मैं अपने को मोक्ष कैसे पहुंचा सकूगा?
लाओत्से कहेगा कि जितने लोग अपनी चेष्टा से कुछ पाने में लगे हैं, वे ऐसे लोग हैं, जैसे कोई आदमी अपने जूते के बंद पकड़ कर खुद को उठाने की कोशिश में लगा हो। कोशिश कितनी ही करो, परिणाम कुछ न होगा। थोड़ा-बहुत उछलकूद भी कर सकता है आदमी। उछलेगा, कूदेगा, तो लगेगा कि उठता भी हूं बीच-बीच में। फिर जमीन पर पड़ जाएगा। मुझसे जो विराट और बड़ा मुझे घेरे हुए है, अगर उसका ही कोई लक्ष्य है तो ठीक। मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। मैं कौन हूं जो बीच में आऊं? न मुझसे मेरे जन्म के समय प्रकृति ने पूछा कि बनाते हैं तुम्हें; क्या इरादा है? न मेरी मौत के वक्त कोई मुझसे पूछेगा कि मिटाते हैं तुम्हें; क्या इरादा है? न प्रकृति मुझसे पूछती है कि तुम्हारे भीतर रखते हैं यह हृदय, किसलिए धड़के तुम तय करना। नहीं, कोई प्रकृति कहती नहीं। प्रकृति बना देती है, मिटा देती है। बीच में जो हम विचार करना शुरू करते हैं, उससे हम अपने लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं।
लाओत्से कहता है, अपने लक्ष्य निर्धारित करके हम उन नालों की तरह हो जाते हैं, जो चलते बहुत हैं, लेकिन पहुंचते उसी सागर में हैं जो कहीं नहीं जाता। नाले चलते बहुत हैं। और चलते वक्त नाला सागर से कह भी सकता है: क्या पड़े हो, चलो! हम छोटे-छोटे इतना चल रहे हैं, तुम इतने बड़े हो, चलो! लेकिन ये नाले चल-चल कर पहुंचते कहां हैं? गिरते कहां हैं? खोते कहां हैं? उस सागर में खो जाते हैं, जिससे इन्होंने कहा था ः क्या बेकार पड़े हो!
लाओत्से हम बुद्धिमानों को कहेगा कि तुम व्यर्थ ही दौड़ रहे हो; क्योंकि तुम वहीं पहुंच जाओगे, जहां मैं पड़ा ही हुआ हूं। इसका मतलब समझ लें। तुम वहीं पहुंचोगे, जहां मैं पहुंचा ही हुआ हूं। तुम चल-चल कर पहुंचोगे; बहुत चलोगे, बहुत परेशान, चिंता लोगे, रातें खराब करोगे, निद्रा खो जाएगी, हजार बीमारियां पाल लोगे। सोचें नाले की तकलीफ, सागर तक लंबी यात्रा है! कितने समझौते करने पड़ते हैं, किस नदी में गिरना पड़ता है, किस तरह खुद को बचाना पड़ता है! और बचा कर भी होता क्या है? मजा यह है कि सागर तक अंतिम जो घटना घटने वाली है, वही घटती है-बचाए नाला तो, न बचाए तो। नाला बचाता है कि कहीं रेगिस्तान में न खो जाऊं। रेगिस्तान में भी कोई नाला खो जाएगा तो जाएगा कहां? सूरज की किरणों से चढ़ेगा और सागर में पहुंच जाएगा। नदी में चला जाऊं, बड़ी नदी का सहारा ले लूं। कहीं छोटी नदी के सहारे से, हो सकता है, न पहुंच पाऊं; तो बड़ी नदी का सहारा ले लूं, बड़ा सहारा ले लूं। छोटी नदियां भी वहीं पहुंच जाती हैं, बड़ी नदियां भी वहीं पहुंच जाती हैं। और मजा यह है कि सबकी अंतिम परिणति उस सागर में हो जाती है, जो कहीं जाता ही नहीं।
लाओत्से कहता है, 'अकेला मैं उदास, अवनमित, समुद्र की तरह धीर, इधर-उधर बहता हुआ-मानो लक्ष्यहीन।'
ऐसा दिखता है कि लहरें यहां आ रही हैं, वहां जा रही हैं-लक्ष्यहीन। कभी आपने खयाल किया कि सागर में जब आपको लहरें आती-जाती मालूम पड़ती हैं, तो आप एक बड़े भ्रम में होते हैं। सागर के किनारे तट पर खड़े
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