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________________ मार्ग हुँ बोधपूर्वक विसर्ग के अनुकूल जीवा जैसा स्वस्थ मालूम पड़ रहा है। उसे हड्डी-हड्डी होना चाहिए; तब आपको लगेगा कि कोई त्याग है। महात्मा कहीं भी सुख लेता हुआ मालूम पड़े तो आपको अड़चन होगी। इसलिए जहां-जहां सुख है, वहां-वहां से आप अपने महात्मा को तोड़ते हैं। भोजन वह ठीक नहीं कर सकता। सुंदर स्त्री उसके पास दिखाई पड़ जाए तो आपको बहुत बेचैनी हो जाएगी। क्यों? आपका जहां-जहां सुख है, वहां से महात्मा दूर होना चाहिए। भोजन ठीक न कर सके; सुंदर स्त्री उसके पास न दिखाई पड़ सके। इसलिए महात्माओं को होमो-सेक्सुअल समाज खड़े करने पड़े, एक ही लैंगिक समाज खड़े करने पड़े। कैथलिक महात्मा है, तो वह पुरुष अलग रहते हैं एक मोनेस्ट्री में, स्त्रियां अलग रहती हैं दूसरी मोनेस्ट्री में। जैनों का महात्मा चलता है तो साधु एक तरफ चलते हैं अलग, साध्वियां एक तरफ चलती हैं अलग। उनको आप साथ भी नहीं ठहरने दे सकते हैं। आपको अपने महात्मा पर इतना भी भरोसा नहीं है? इतना डर क्या है? जैन साध्वी अकेली नहीं चल सकती; पांच को चलना चाहिए साथ। निश्चित, जैन शास्त्र निर्माण करने वाले लोग भलीभांति समझ गए होंगे कि पांच औरतें जहां साथ हैं, चार एक के ऊपर पहरा हैं। वे चार जो हैं, वे किसी को भी सुख न लेने देंगी, वे नजर रखेंगी। एक आंतरिक, बिल्ट-इन, इंतजाम कर दिया आपने भीतरी। पांच औरतों को साथ चला रहे हैं, वे किसी को सुखी न होने देंगी। और एक-दूसरे पर नजर रखेंगी कि कोई सुखी तो नहीं हो रहा। और स्त्री-पुरुष पास हों तो ज्यादा सुखी हो सकते हैं, यह डर समाया हुआ है। क्योंकि आपका अनुभव क्या है सुख का? दो ही अनुभव हैं आपके सुख केः भोजन का, स्त्री का, या पुरुष का। दो ही सुख हैं। तो दो सुख से महात्मा को बिलकुल तोड़ देना चाहिए। तब फिर वह लगता है कि ठीक, अब ठीक है! तो जितना मरा हुआ हो, उतना ठीक है। जिंदा हो, तो डर है। क्योंकि जिंदगी के साथ डर है। हंस कैसे सकता है महात्मा? हंसने का मतलब? हंसने का मतलब अभी भी उसे जगत में, या होने में रस है। हंसने का मतलब होता है कि रस है। विरस होना चाहिए। उसकी सारी हंसी सूख जानी चाहिए। तो हम एक रुग्ण समाज में जी रहे हैं। और हमारे रुग्ण समाज की रुग्ण धारणाएं हैं। और उन रुग्ण धारणाओं को हम एक-दूसरे पर थोपते हैं। बाप भी नहीं चाहता कि बेटा सुखी हो; कहे कितना ही। कहता बहुत है कि तेरे सुख के लिए सब कर रहा हूं; लेकिन सुखी चाहता नहीं कि बेटा सुखी हो। यह जरा कठिन लगेगा। क्योंकि बाप सोचेगा, ऐसा तो कभी नहीं, मैं तो चाहता हूं मेरा बेटा सुखी हो। आप कहते हैं; आप समझते भी हैं कि आप चाहते हैं, लेकिन जो आप करते हैं, उससे बेटा दुखी होगा। आप कर भी वही सकते हैं जो आपके बाप ने आपके साथ किया है। नया सोचना बड़ी कठिन बात है। इसलिए हर बाप अपने बेटे के साथ वही करता है जो उसके बाप ने उसके साथ किया है। और ढांचा है; उस ढांचे को आप थोप देते हैं। थोड़ा सोचिए, आप सुखी हैं? अगर आप सुखी नहीं हैं, तो एक बात तो पक्की समझ लीजिए कि आपका ढांचा किसी को भी सुखी नहीं कर सकता। लेकिन यह कोई नहीं सोचता। बाप यह नहीं सोचता कि मैं सुखी नहीं हूं तो मेरी धारणाओं के अनुसार चला हुआ मेरा लड़का कैसे सुखी हो जाएगा? अगर मैं सुखी नहीं हूं तो एक बात तो तय है कि मेरा ढांचा इसे न दूं; और कुछ भी हो। कम से कम दूसरे में कोई संभावना तो होगी कि शायद सुखी हो जाए। लेकिन मेरे ढांचे में तो कोई संभावना नहीं है। लेकिन कोई सोचता नहीं है। आपको मजा ढांचा देने में आता है; लड़के को सुख मिलेगा या नहीं, यह सवाल नहीं है। आप लड़के को अपने अनुसार ढाल रहे हैं, इसमें आपको मजा आ रहा है। बड़ी अजीब बात है। आप दुखी हैं और अपने ढांचे में ढाल रहे हैं। 399
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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