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ताओ उपनिषद भाग ३
अगर मैं जीतना ही नहीं चाहता, तो मैंने मित्रता के हाथ फैला दिए। और अगर मैं इतने प्रेम से भरा हूं कि आपको आनंद मिलता हो मुझे जीत लेने में तो मैं हारने को तत्काल राजी हूं, तो मैंने जीत लिया। हिंसा के जगत में हराए बिना कोई जीत नहीं है; अहिंसा के जगत में हारने की कला ही जीतने की कला है।
ऐसे व्यक्ति की महत्वाकांक्षा कभी पूरी न होगी, जो सोचता है कि हिंसा से, रक्तपात से जगत का शासन कर ले। एक व्यक्ति का नहीं किया जा सकता, जगत तो बहुत बड़ी बात है। आप जरा सोचें, एक अपने छोटे से बच्चे को आप शासन में नहीं रख सकते, उसका भी प्रेम पाने में आप असफल हो जाएंगे अगर आपने हिंसा का उपाय किया। और सभी मां-बाप कर रहे हैं, इसलिए असफल हो जाते हैं। डरा रहे हैं, भयभीत कर रहे हैं, धमकी दे रहे हैं। बच्चा कमजोर है, आप धमकी दे सकते हैं। बच्चे से कमजोर और क्या होगा? लेकिन यह धमकी क्या परिणाम लाएगी?
यह बच्चा आपके प्रति घृणा इकट्ठी कर रहा है। आप ही जिम्मेवार हैं। कल यह घृणा फूटेगी और बहेगी। और तब? तब आप सिर्फ रोएंगे-पीटेंगे और चिल्लाएंगे, और कहेंगे कि सब बच्चे बिगड़ गए हैं। और कभी खयाल न करेंगे कि बिगड़ कैसे गए हैं। क्योंकि कोई बच्चा नहीं बिगड़ सकता, अगर बाप पहले ही बिगड़ न गया हो। कोई उपाय नहीं है बिगड़ने का। वृक्ष फलों से पहचाने जाते हैं; बाप उनके बेटों से पहचाने जाते हैं। और कोई उपाय भी नहीं है। अगर फल सड़ा है तो जड़ें ही सड़ी होंगी; भला जड़ें कितना ही शोरगुल मचाएं कि फल बिगड़ गया। लेकिन फल बिगड़ता कैसे है? बिगाड़ने की लंबी प्रक्रिया है। और बिगाड़ने की लंबी प्रक्रिया हिंसा से शुरू होती है।
मगर हमें खयाल में नहीं है; हम सोचते हैं, शासन आसान है हिंसा से। एक व्यक्ति पर भी संभव नहीं है; इस विराट जगत पर तो कभी भी संभव नहीं हो सकेगा।
'शुभ लक्षण की चीजें वामपक्ष को चाहती हैं, अशुभ लक्षण की चीजें दक्षिणपक्ष को। उप-सेनापति वामपक्ष में खड़ा होता है, और सेनापति दक्षिणपक्ष में। अर्थात अंत्येष्टि क्रिया की भांति विजय का पर्व मनाया जाता है।'
यह व्यंग्य कर रहा है लाओत्से। जैसे कि कोई अरथी ले जा रहा हो, और जैसे लाश रखी गई हो अंत्येष्टि के लिए, और एक तरफ सेनापति खड़ा है और एक तरफ उप-सेनापति खड़ा है, और आग जलाई जा रही है, और लाश जलाई जा रही है। विजय को, विजय की यात्रा को, लाओत्से कहता है, समझना कि यह मरघट पर हो रही अंतिम क्रिया है।
'हजारों की हत्या के लिए शोकानुभूति जरूरी है।' __ और तुम यह क्या कर रहे हो? विजय का उत्सव मना रहे हो? हजारों की हत्या करके तुम विजय का उत्सव मना रहे हो? लेकिन थोड़ा इसे समझें। जब भी कोई मुल्क जीतता है युद्ध में, तो विजय का उत्सव मनाता है। क्यों? अगर थोड़ी भी समझ हो, तो यह भी हो सकता है कि मजबूरी थी, लड़ना पड़ा, लेकिन इसमें इतना उत्सव मनाने की क्या बात है?
इसके बहुत गहरे, गहन मनोवैज्ञानिक कारण हैं। जब भी आप कोई अपराध करते हैं, तो एक ही उपाय है अपराध को भूलने का कि आप उत्सव में लीन हो जाएं। जब भीतर पश्चात्ताप का क्षण आ रहा हो, तो उससे बचने का एक ही उपाय है कि बाहर के शोरगुल में, धूमधाम में उस क्षण को भुला दें। जब भी आप कोई बड़ा उत्सव मनाते हैं, तो आप भीतर किसी अपराध को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। यह बड़ी कठिन बात है, यह बड़ी कठिन बात है।
लेकिन आदमी बड़ा कुशल है छिपाने में। तो जब भी युद्ध में कोई जीतता है, तो उत्सव मनाता है। उस उत्सव के शोरगुल में, बैंड-बाजों में, झंडे-पताकाओं में, रंग-बिरंगे गुब्बारों में, नारेबाजी में, नेताओं की नासमझी की बातों में एक हवा पैदा होती है, जिसमें हम यह भूल ही जाते हैं कि हमने क्या किया! हम किस बात का उत्सव मना रहे हैं? हमने लाशें बिछा दीं; उनके ऊपर हम यह उत्सव मना रहे हैं? इस उत्सव के उपद्रव में आदमी फिर वापस, जहां युद्ध
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