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ताओ उपनिषद भाग३
वह आदमी डर गया; नहीं पहने हुए था। तो शंकराचार्य ने कहा, तो तुम समझते हो कि ऋषि-मुनि हमारे नासमझ थे? बिना यज्ञोपवीत के और ब्रह्मज्ञान की खोज शुरू कर दी!
वे बीस-पच्चीस जो नासमझ वहां इकट्ठे होंगे, वे बड़े प्रसन्न हुए होंगे; क्योंकि वे यज्ञोपवीत पहने हुए थे। और वह आदमी अचानक निंदित... । उस आदमी को लगा होगा, जमीन फट जाए तो मैं समा जाऊं। यह कहां फंस गया! यह प्रश्न मैंने कहां से पूछा!
लेकिन अभी तो यह शुरुआत थी। शंकराचार्य ने कहा, मैं यह भी पूछना चाहता हूं कि पेशाब खड़े होकर करते हो कि बैठ कर? क्योंकि फुल पैंट पहने हुए हो, बैठ कर करना बहुत मुश्किल पड़ेगा। खड़े होकर पेशाब करते हो और ब्रह्मज्ञान की कोशिश कर रहे हो?
इसको क्या कहिएगा? इससे बड़ी हिंसा और कुछ हो सकती है? इस आदमी के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ है, वह सिर्फ सज्जन ही कर सकते हैं ऐसा दुर्व्यवहार! लेकिन हमें पता नहीं चलता कि दूसरे को बुरा दिखाने की चेष्टा में जो रस है, वही हिंसा है। दूसरे को नीचा दिखाने की चेष्टा में जो रस है, वही हिंसा है।
आदमी हिंसा से पशुओं से जीता। और हिंसा आगर बनी रही तो आदमी अपने से ही हार जाएगा। आज जो खतरा है, वह हिंसा के कारण ही है। क्योंकि हमारे पास इतने साधन हो गए हैं कि अगर हिंसा की हमारी वृत्ति जारी रहती है तो आदमी इस जमीन पर ज्यादा देर नहीं रहेगा। हम अपना आखिरी अध्याय लिख रहे हैं। इतिहास आखिरी किनारे खड़ा है। हिंसा से ही हम जीत कर आए हैं, लेकिन अब हिंसा ही हमारी मौत बनेगी। क्योंकि वह जो आदत हमने सीख ली है, उसके दो परिणाम हो रहे हैं।
एक तो हमें रोज हिंसा चाहिए। खयाल करें, हर पंद्रह वर्ष में हमें एक बड़ा युद्ध चाहिए। दस-पंद्रह साल में हम इतनी हिंसा इकट्ठी कर लेते हैं कि बड़ा युद्ध न हो तो निकास नहीं होता। और एक-एक आदमी को दो, चार, आठ दिन में क्रोध और हिंसा का उपाय चाहिए। नहीं तो आग जलने लगती है और आदमी बुखार से ग्रस्त हो जाता है। निकास चाहिए! तो हम निकालते रहते हैं। यह जो इकट्ठी होती हिंसा है, यह कितने रूपों में आज निकल रही है, उसे देखें। नाम, बहाने; विद्यार्थी शिक्षकों पर निकाल रहे हैं; बेटे बाप पर निकाल रहे हैं। पुरुष सदा से स्त्रियों पर निकालते रहे हैं; अब पश्चिम में स्त्रियां पुरुषों पर निकाल रही हैं। ऐसा समझ में पड़ता है कि कारण न भी हो...।
अभी मैं एक हिप्पी-विचारक की एक किताब पढ़ रहा हूं। किताब का नाम है : डू इट। किताब में लेखक ने सुझाव दिया है कि जो भी कानून हो, उसे तोड़ो। इसकी फिक्र मत करो कि क्यों तोड़ रहे हो। तोड़ना ही लक्ष्य है। जिसको भी मना किया जाता हो, वह काम करो; इसकी फिक्र मत करो कि उसका क्या फल होगा। उसे तोड़ना ही लक्ष्य है। लेखक ने सुझाव दिया है : किताबें जला दो, बाइबिल जला दो, चर्चों में आग लगा दो, यूनिवर्सिटीज को फूंक डालो! क्यों? तो वह कहता है, क्यों का सवाल नहीं है। आग क्रांति है। और हमें सब जला डालना है, ताकि हम सब फिर से शुरू कर सकें।
उसने एक बड़ी मजे की बात कही है। उसने यह कहा है कि हमें कुछ चीज शुरू करने का मौका ही नहीं बचने दिया लोगों ने। पुराने लोग सभी कुछ कर गए हैं। हमें कुछ करने का मौका नहीं है। सब जला दो! ताकि हम फिर से शुरुआत कर सकें।
यह जो युवक कह रहा है, यह कोई एक युवक की बात नहीं है। आज यूरोप और अमरीका में लाखों युवक इस बात से राजी हैं। बड़ी अजीब बातें!
अभी मैं एक छोटी पुस्तिका देख रहा था, जिसमें सुझाव दिया गया है कि तुम्हें जो पहली साध्वी मिले, उसके साथ व्यभिचार करो। जो पहली नन, साध्वी मिल जाए, उसके साथ तत्काल व्यभिचार करो। क्यों?
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