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________________ ण मनुष्य का एक और आयाम! स्त्री और पुरुष के चित्त को समझ लेना साधना की अनिवार्य भूमिका है। जैसा मैंने कल कहा, स्त्री है अनाक्रामक; आमंत्रण है, आक्रमण नहीं है। पुरुष है आक्रामक, हमलावर। इसलिए पुरुष का चित्त सदा यात्रा पर है। दूसरे की सक्रिय खोज है। और आक्रामक है चित्त, इसलिए पुरुष चाहता है कि जाना जाए, पहचाना जाए; लोग जानें, प्रतिष्ठा हो, यश हो, सम्मान हो। यश की आकांक्षा आक्रमण का हिस्सा है। और जिस दिन यश की आकांक्षा नहीं होती किसी में, उस दिन ही आक्रमण शून्य हो जाता है। आक्रमण के रूप अनेक हो सकते हैं। कोई तलवार लेकर आक्रमण पर निकलता है-दूसरे को जीतने। कोई यही काम त्याग से भी कर सकता है। कोई यही काम ज्ञान से भी कर सकता है। कोई चित्र बना सकता है; कोई संगीत सीख सकता है; कोई तलवार चला सकता है। लेकिन आकांक्षा एक है कि दूसरे मुझे जानें, मैं जाना जाऊं, पहचाना जाऊं, सम्मानित होऊं। - इसका अर्थ हुआ कि पुरुष का केंद्र है अहंकार। अहंकार अगर जाना न जाए तो निर्मित ही नहीं होता। जितने ज्यादा लोग मुझे जानें, उतना अहंकार निर्मित होता है। जितने ज्यादा लोगों तक मेरा प्रभाव हो, जितनी बड़ी सीमा हो उस प्रभाव की, उतना मेरा अहंकार सघन होता है। स्त्री है अनाक्रमण, अर्थात समर्पण। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। अगर आक्रमण चाहता है कि जाना जाऊं, तो समर्पण चाहेगा कि जाना न जाऊं, पहचाना न जाऊं। करूं भी, तो भी यह पता न चले कि मैंने किया। समर्पण छिपना चाहता है; समर्पण अज्ञात रहना चाहता है। समर्पण अनाम की खोज करता है। समर्पण की गहरी से गहरी आकांक्षा आक्रमण के विपरीत है। अगर समर्पण भी जाना जाना चाहे, यश चाहे, खबर चाहे कि लोग जानें कि मैंने समर्पण किया, तो जानना कि समर्पण केवल शब्द ही है, भीतर आक्रमण ही है। दूसरे के चित्त पर मेरा प्रभाव हो, यह हिंसा है, आक्रमण है। किसी को मेरा पता भी न हो, ऐसे जीने का जो ढंग है, वही समर्पण है। स्त्री का प्रेम, अगर वस्तुतः स्त्री का प्रेम है, तो अज्ञात होगा। इसीलिए कोई स्त्री पहल नहीं कर पाती। अगर उसका किसी से प्रेम भी हो, तो वह यह नहीं कह सकती कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। प्रतीक्षा करेगी कि पुरुष ही उसे किसी दिन कहेगा कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। पहल, इनीशिएटिव आक्रमण का ही हिस्सा है। स्त्री घोषणा नहीं करेगी। उसके सारे अस्तित्व से घोषणा के स्वर सुनाई पड़ेंगे। उसकी आंखों से, उसके ओंठों से, उसके होने से, उसकी श्वास-श्वास से घोषणा होगी; लेकिन वह घोषणा अप्रकट होगी। उसे वही समझ पाएगा जो उतने सूक्ष्म में, उतने प्रेम में लीन हुआ है। अन्यथा वह दिखाई भी नहीं पड़ेगी। यह स्त्री-चित्त का आयाम खयाल में रख लें तो फिर इस सूत्र में प्रवेश आसान हो जाए। 293
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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