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श्रद्धा, संस्कार, पुनर्जन्म, कीर्तन व भगवत्ता
लोगनाराम कहतान की
भीतर नाचने की तैयारी करने लगेगा। जो कहा है, अगर वह हृदय को छू जाए तो आप जरूर ही नाचना चाहेंगे। क्योंकि हृदय नाचना ही जानता है। हृदय पर जब कोई आघात गहरा हो जाता है और हृदय में जब कोई बीज गहरे में उतर जाता है, तो हृदय एक ही तरह से अपने को प्रकट करना जानता है कि सारा रोआं-रोआं नाच उठे। तो जिनको हृदय तक बात पहुंच जाती है, वे नाचना चाहते हैं। और उन्हें बिना नाचे सड़क पर छोड़ देना खतरे से खाली नहीं है। एक दस मिनट नाच कर वे हलके हो सकेंगे। वह जो भीतर घना हुआ, वह प्रकट हो जाएगा; जो बादल आकाश में आया, वह बरस लेगा। वे हलके होकर जाएंगे। और एक संबंध भी जोड़ कर जाएंगे कि बुद्धि और हृदय में विरोध नहीं है। विरोध हमारा खड़ा किया हुआ है।
लेकिन जिनकी समझ में नहीं आया, जिनकी समझ द्वार पर पहरा बन कर खड़ी हो गई और जिन्होंने हृदय तक नहीं पहुंचने दिया, उनको जरूर सवाल उठेगा कि यह कीर्तन की क्या जरूरत है? न केवल सवाल उठेगा, बल्कि ऐसा भी लगेगा कि यह तो बड़ा विपरीत है। जो मैं कहता हूं, उससे यह कीर्तन विपरीत मालूम पड़ता है। यह तो बड़ी नासमझों जैसी बात है, ग्राम्य, कि लोग नाचें-कूदें।
ध्यान रखें, मेरे लिए सभी विपरीत, जैसा लाओत्से ने कहा है, परिपूरक हैं। जब मैं एक घंटे, डेढ़ घंटे तक आपसे बुद्धि की बात करता हूं, तो आपका बैलेंस झुक जाता है एक तरफ। जरूरी है कि इससे विपरीत हम कुछ करके विदा हों। आप ज्यादा बैलेंस्ड, ज्यादा संतुलित होकर जाएंगे। कुछ हृदय का हम कर लें।
और भी कारण हैं। जो मैंने कहा है, वह आपके गहरे उतर जाएगा, अगर आप उसको सुन कर नाच कर लौटें। जो मैंने कहा है, अगर आप सोचते ही लौटे, आप उसको खराब कर लेंगे। मैंने कुछ कहा है, आपके ऊपर वह हावी है, सिर पर; आप उसको सोचते लौटेंगे। आप करेंगे क्या? आप सोच कर उसको विकृत कर देंगे। उचित है कि एक दस-पंद्रह मिनट के लिए खाली गैप मिल जाए, आपको मौका न मिले कुछ करने का, और वह जो आपके ऊपर है धीरे-धीरे रस-रस कर भीतर चला जाए। एक पंद्रह मिनट जरूरी है कि आपको मौका न मिले। आपको मौका मिला तो आप उसको अस्तव्यस्त कर देंगे। इसलिए अगर आप एक पंद्रह मिनट नाच कर, भूल कर बुद्धि को, हृदयपूर्वक जीकर लौट जाते हैं, तो जो मैंने आपसे कहा है आप उसको विकृत न कर पाएंगे, वह आपके विकृत करने के पहले आपके हृदय तक कोई थोड़ी सी धाराएं उसकी पहुंच गई होंगी। वे ही धाराएं वस्तुतः काम की हैं।
फिर जो भी मैं कह रहा हूं, वह कितना ही बौद्धिक मालूम पड़े, वह बौद्धिक नहीं है। कहना, अभिव्यक्ति, बौद्धिक है। और मैं उसे इस भांति समझाने की आपको कोशिश करता हूं कि आपके तर्क को भी समझ में आ जाए। लेकिन जो मैं कह रहा हूं, वह तार्किक नहीं है। तर्क केवल माध्यम है। शब्द केवल उपाय है। जो मैं कह रहा हूं, वह बिलकुल अतर्क्ष्य है। और जो मैं कह रहा हूं, वह विचार के अतीत है। अगर मैं कहने पर ही आपको छोड़ दूं, तो आप बहुत जल्दी तोतों की तरह पंडित बन जाएंगे, या पंडितों की तरह तोते बन जाएंगे। आपको सब बातें कंठस्थ हो जाएंगी और आप भी दूसरों को कह सकेंगे। बस इतना ही होगा। इसका कोई बहुत अर्थ नहीं होने वाला। मेरा आपको कोई तोते बनाने का जरा भी प्रयोजन नहीं है।
आपको पता न होगा, अगर आप एक दस मिनट नाच लिए, गीत गा लिए, आनंदित हो लिए, तो आप तोते नहीं बन पाएंगे। आप हलके हो गए। आप पर जो भार पड़ा था, बुद्धि पर जो तनाव पड़ा था, वह हलका हो गया।
और अब जो सारभूत है, वह आपके भीतर रह जाएगा; जो शब्द हैं, वे तिरोहित हो जाएंगे। यह कीर्तन इसलिए कि जो मैंने आपसे कहा है, उसके शब्द भूल जाएं और उसका सत्य आपके साथ रह जाए। यह कीर्तन इसलिए कि जो मैंने आपसे कहा है, उसका माध्यम न पकड़ जाए, कंटेनर न पकड़ जाए; कंटेंट, उसकी सार-वस्तु आप में रह जाए।
तो मैं नहीं कहता आपसे कि जो मैं कहता हूँ उसे आप याद रखें। मैं कहता हूं, आप कृपा करके भूल जाएं,
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