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ताओ उपनिषद भाग ३
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लाओत्से कहता है, 'शुभ और अशुभ के बीच फासला क्या है ?"
तुम्हारा ज्ञान ही बस फासला है।
'लोग जिससे डरते हैं, उससे डरना ही चाहिए। लेकिन अफसोस कि जागरण की सुबह अभी भी बहुत दूर है। कितनी दूर है !'
लाओत्से यह नहीं कह रहा है कि आपको जो मौज आए, करने लगें। कहता है, लोग जिससे डरते हैं, उससे डरना ही चाहिए; क्योंकि लोगों के बीच रहना है। लोग जिसे बुरा मानते हैं, उसे बुरा मानना ही चाहिए। लोग जिसे भला कहते हैं, उसे भला कहना ही चाहिए। मगर यह अभिनय से ज्यादा न हो, यह आत्मा न बने। लोग जिससे डरते हैं, उससे डरना ही चाहिए। ठीक है बिलकुल । लेकिन उसी को जीवन का परम सत्य मत जान लेना। क्योंकि लोग जिससे डरते हैं, उससे डरो; जो लोग कहते हैं ठीक है, उसे करो; जो लोग कहते हैं कि ठीक नहीं है, उसे मत करो; अगर तुम इसमें पूरे भी उतर गए, परिपूर्ण भी हो गए, तो भी लाओत्से कहता है, लेकिन अफसोस कि जागरण की सुबह अभी भी कितनी दूर है! तुमने अगर लोगों की नीति के पूरे मापदंड भी पूरे कर दिए; तुमने चोरी न की, हिंसा न की, व्यभिचार न किया; तुमने दया की, दान किया, अहिंसा की लोगों के समस्त नैतिक मापदंड पूरे कर दिए, तो भी लाओत्से कहता है, अफसोस कि जागरण की सुबह अभी भी कितनी दूर है। तुम अगर पूरे नैतिक भी हो गए तो भी अभी धर्म की पहली किरण नहीं फूटी है।
इसका यह मतलब नहीं कि लाओत्से कहता है कि नीति को छोड़ देना । वह यही कहता है कि नीति को अंतिम मत समझ लेना । वह यह नहीं कहता कि नीति व्यर्थ है । वह यह कहता है कि नीति अपर्याप्त है। वह यह नहीं कहता कि नीति को छोड़ कर अनैतिक हो जाना। वह कहता है कि नैतिक रहना, लेकिन जानना उसे केवल जीवन की सुविधा, कनवीनिएंस; उसको सत्य मत समझ लेना । और उसको ही पर्याप्त मत समझ लेना कि बात पूरी गई। चूंकि मैं चोरी नहीं करता, चूंकि मैं झूठ नहीं बोलता, चूंकि मैं किसी को अपमानित नहीं करता, चूंकि किसी से कह नहीं करता, इसलिए ठीक है, बात समाप्त हो गई, पहुंच गया मैं परम सत्य को, ऐसा मत समझ लेना ।
नीति सामाजिक व्यवस्था है— सिर्फ व्यवस्था । धर्म जागतिक सत्य की खोज है। तो नीति समाज समाज में अलग-अलग होगी। जो यहां नैतिक है, वह दो गांव छोड़ने के बाद नैतिक न हो। सारी दुनिया में हजार तरह की नीतियां हैं। एक कबीले में जो बात बिलकुल नैतिक है, दूसरे कबीले में बिलकुल अनैतिक हो जाती है। एक बात जिसे हम सोच भी नहीं सकते कि कोई करेगा, कहीं दूसरी जगह नैतिक मानी जाती है; करना कर्तव्य समझा जाता है।
एक कबीला है अफ्रीका में। अगर पिता मर जाए तो बड़े बेटे को मां के साथ शादी करना नैतिक है। और अगर बेटा इनकार करे तो अनैतिक है। उनकी भी दलील है। सभी नीतियों की दलीलें होती हैं। वे कहते हैं कि अब मां बूढ़ी हो रही है तो अगर बेटा अपनी जवानी उसके लिए कुर्बान नहीं कर सकता तो कौन करेगा? यह कर्तव्य है । और अगर हम ठीक से सोचें तो बेटा एक जवान लड़की के साथ शादी करना छोड़ कर अपनी मां से शादी करने को तैयार होता है तो त्याग तो निश्चित है। अगर हम उसी कबीले में पैदा होते और हमें कुछ और बाहर की दुनिया का पता न होता तो यही कर्तव्य था। और जो बेटा यह नहीं करेगा, उसको पूरा गांव, पूरा कबीला निंदा करेगा कि यह लड़का अपनी मां का भी समय पर न हो सका।
हमें बहुत बेहूदी लगेगी बात, सोचने के बाहर लगेगी, एकदम अनैतिक लगेगी। इससे ज्यादा अनैतिक और क्या होगा कि बेटा मां से शादी करे ? हमारी अपनी नीति है, उनकी अपनी नीति है। नीतियां हजार हैं। धर्म से उसका कोई संबंध नहीं है। अपनी सुविधा है, अपनी व्यवस्था है। नैतिकता अगर कोई पूरी भी निभा ले तो भी उस सत्य की तरफ यात्रा शुरू नहीं होती, जिसकी तलाश है। हां, समाज के साथ एक एडजस्टमेंट, समाज के साथ एक समायोजन