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ताओ उपनिषद भाग ३
लाओत्से कहता है, ऐसे वक्तव्य हैं, जो पूर्ण हैं।
लेकिन वक्तव्य पूर्ण कब होता है? क्या शब्दों की कुशलता से, व्याकरण की व्यवस्था से वक्तव्य पूर्ण होता है? क्या जिसमें कोई व्याकरण की भूल-चूक न हो, शब्द-शास्त्र पूर्ण हो, वह वक्तव्य पूर्ण होता है? लाओत्से के हिसाब से नहीं। लाओत्से के हिसाब से वह वक्तव्य पूर्ण है-चाहे उसमें व्याकरण की भूलें हो, शब्द गलत हों-वह वक्तव्य पूर्ण है जो अनुभव से निःसृत होता है।
दो तरह के वक्तव्य हैं। एक, जो वक्तव्यों से निःसृत होते हैं; और दूसरे, जो अनुभवों से। आप कहते हैं, ईश्वर है। यह आपके अनुभव से नहीं आता। यह किसी ने आपको कहा है, उसके वक्तव्य से आपके भीतर निर्मित होता है। यह वक्तव्यों की प्रतिध्वनि है, आपके अनुभव का निर्झर नहीं। आपके अनुभव से इसका जन्म नहीं है। सुने हुए शब्दों का संकलन है। सुना है आपने, उसे आप दोहरा देते हैं। यह स्मृति है, ज्ञान नहीं।
आपके अनुभव से जब कोई वक्तव्य आता है, सीधा, प्रत्यक्ष, आपके भीतर से जन्मता है, तब पूर्ण होता है। और तब हो सकता है व्याकरण सहायता न दे; तब हो सकता है भाषा टूटी-फूटी हो। अक्सर होगा। क्योंकि वक्तव्य इतना बड़ा होता है कि भाषा का जो भवन है, छोटा पड़ जाता है। उस वक्तव्य को भीतर ढालते हैं तो भवन खंडहर हो जाता है। वक्तव्य इतना बड़ा होता है कि सब शब्दों को तोड़-मरोड़ डालता है।
गुरजिएफ ऐसी भाषा बोलता था, जिसमें कोई व्याकरण ही न था। उसकी अंग्रेजी समझनी तो बड़ी मुश्किल बात थी। वे ही लोग समझ सकते थे, जो वर्षों से उसे सुन रहे थे और हिसाब रखते थे कि उसका क्या मतलब होगा। लेकिन फिर भी पश्चिम के श्रेष्ठतम ज्ञानी उसके चरणों में बैठे। पावेल ने लिखा है कि उसके शब्द सुन कर ऐसी कठिनाई होती थी कि कोई हथौड़े मार रहा है। लेकिन फिर भी उसके पास जाने का मोह नहीं छूटता था। वह जो कह रहा था, वह तो बिलकुल ही अजीब था; लेकिन वह जो कहने वाला भीतर था, वह खींचता था, वह पकड़ता था।
उसकी पहली किताब जो उसने वर्षों लिखी और लिखवाई, इस सदी की श्रेष्ठतम किताबों में एक है : आल एंड एवरीथिंग। मगर इससे ज्यादा बेबूझ किताब कभी नहीं लिखी गई। एक मित्र को उसने अमरीका में कहा था कि कुछ मित्रों को बुलाना और किताब पढ़ी जाएगी। क्योंकि वर्षों तक उसने किताब छापी नहीं, वह छापने योग्य थी भी नहीं। भाषा गोल-गोल है। और कभी-कभी तो एक पूरे पृष्ठ पर एक ही वाक्य फैलता चला जाता है। और पीछे लौट कर दुबारा वाक्य पढ़ना पड़ता है कि इसने वाक्य के शुरू में क्या कहा था और वाक्य के बाद में क्या कहता है। फिर कोई तालमेल नहीं मालूम पड़ता। और ऐसा लगता है कि अगर उसको एक मतलब की बात कहनी हो तो कम से कम हजार बेमतलब की बातें पहले कहता है और फिर वह एक मतलब की बात कहता है। वर्षों तक उसके मित्र इकट्ठ होते, किताब का एक पन्ना पढ़ा जाता, और फिर वह कहता, कैसा लगा? कुछ समझ में न आता।
अमरीका में किसी मित्र को उसने कहा था कि दस-पांच लोगों को बुला लेना; किताब पढ़ी जाएगी। चूंकि किताब छपी नहीं थी, बहुत लोग उत्सुक थे। तो अमरीका का एक बहुत बड़ा बिहेवियरिस्ट मनोवैज्ञानिक वाटसन भी उस बैठक में मौजूद था। वह बहुत विचारशील आदमी था। और इस सदी के मनोविज्ञान में एक अलग परंपरा को, फ्रायड से बिलकुल अलग चलाने वाले जन्मदाताओं में से एक था। उसका मानना है कि आदमी सिर्फ एक यंत्र है, कोई आत्मा वगैरह नहीं है। और उसने बड़े गहरे काम किए इस दिशा में। वाटसन भी था। उसको तो बड़ी मुश्किल हो गई। और भी पांच-सात लोग थे। लेकिन और किसी की तो हिम्मत न पड़ी; लेकिन जो आदमी कहता है आत्मा ही नहीं है, उसकी हिम्मत तो पड़ ही सकती है। उसने खड़े होकर कहा कि महाशय गुरजिएफ, या तो आप हमारे साथ कोई मजाक कर रहे हैं। यह जो पढ़ा जा रहा है, यह क्या है? या तो आप जान-बूझ कर कोई मजाक कर रहे हैं, और या फिर हम किसी पागलखाने में बैठे हैं। कृपा करके यह किताब बंद की जाए और कुछ बातचीत हो, जिसमें कुछ अर्थ हो।
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