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प्रकाश का चुनाबा बाबोपलब्धि है
एक ऐसा नाद भी है मौन का, जिसे हम कहते हैं अनाहत। अनाहत का अर्थ है जो आघात से उत्पन्न न हुआ हो, आहत न हो, जो किसी चीज के टकराने से पैदा न हुआ हो। जो किसी की टक्कर से पैदा होगा, उसमें दोष होगा। लेकिन शब्द तो टक्कर से ही पैदा होते हैं। तो एक ऐसा स्वर भी है मौन का जो अनाहत है, जो आहत नहीं है, जो किसी चीज की चोट से पैदा नहीं होता। - तो महावीर के संबंध में कहा जाता है, वे चुप रहे और चुप्पी से बोले, मौन रहे और मौन से बोले। लेकिन तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। समझेगा कौन उन्हें? इसलिए कहते हैं कि महावीर के ग्यारह गणधर थे, उनके ग्यारह निकटतम शिष्य थे, वे उन्हें समझे। फिर उन्होंने लोगों को वाणी से कहा। अब इसमें बड़े उपद्रव हैं। क्योंकि जो समझने वाले ग्यारह गणधर थे, उनमें कोई भी महावीर की हैसियत का व्यक्ति न था। इसलिए महावीर ने जितना मौन से कहा, उसका एक अंश उन्होंने समझा। फिर जो अंश उन्होंने समझा, उसका एक अंश ही वे लोगों से शब्दों में कह पाए। और जो एक अंश लोगों ने सुना, उसका भी एक अंश उनकी बुद्धि पकड़ पाई। .
लेकिन ऐसा महावीर के साथ ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। ऐसा प्रत्येक मनीषी जब बोलता है, तो यही होता है। इस घटना में हमें विभाजन करना आसान होता है। लेकिन जब किसी को भी लाओत्से को, बुद्ध को, महावीर को-किसी को भी सत्य का अनुभव होता है, तो वह पूर्ण होता है। वह वक्तव्य पूरा है। वहां कोई दोष नहीं होता। लेकिन इस वक्तव्य को, इस घटना को, इस तथ्य को, जो अनुभव में आता है, जैसे ही महावीर खुद भी अपने भीतर शब्द देना शुरू करते हैं, गणधर के हाथ में बात पहुंच गई। मन अब उसको शब्द देगा। तो जो आत्मा ने जाना, उसका एक अंश मन को समझ में आएगा। अब यह मन उसे प्रकट करेगा वाणी से बाहर। तो मन जितना समझ पाता है, उतना भी शब्द नहीं बोल पाते। फिर ये शब्द आपके पास पहुंचते हैं। फिर इन शब्दों में से जितना आप समझ पाते हैं, उतना आप पकड़ लेते हैं। सत्य जो जाना गया था, और सत्य जो संवादित हुआ, इसमें जमीन-आसमान का फर्क हो जाता है।
इसलिए सत्य बोलने वालों को सदा ही अड़चन होती है। और वह यह कि जो बोला जा सकता है, वह सत्य होता नहीं। और जो बोलना चाहते हैं, वह बोला नहीं जा सकता। इन दोनों के बीच कहीं समझौता करना पड़ता है। सभी शास्त्र इसी समझौते के परिणाम हैं। इसलिए शास्त्र सहयोगी भी हैं और खतरनाक भी। अगर कोई इसको समझ कर चले कि शास्त्रों में बहुत अल्प ध्वनि आ पाई है वक्तव्य की, तो सहयोगी हैं। और अगर कोई समझे कि शास्त्र सत्य है, तो खतरनाक हैं।
लाओत्से कहता है, वक्तव्य जब पूर्ण होता है, तो उसमें प्रतिवाद के लिए कोई उपाय नहीं।
लेकिन आपने कोई ऐसा वक्तव्य सुना है, जिसका प्रतिवाद न किया जा सके? किसी ने कहा, ईश्वर है। क्या अड़चन है? आप कह सकते हैं, ईश्वर नहीं है। किसी ने कहा, आत्मा है; आप कह सकते हैं, नहीं है। किसी ने कहा कि मैं आनंद में हूं; आप कह सकते हैं, हमें शक है। आपने ऐसा कोई वक्तव्य सुना है कभी, जिसका प्रतिवाद न किया जा सके? नहीं सुना है। क्या ऐसा कोई वक्तव्य कभी दिया ही नहीं गया है, जिसका प्रतिवाद न किया जा सके ? नहीं, ऐसे बहुत वक्तव्य दिए गए हैं। अड़चन है थोड़ी। ऐसे बहुत वक्तव्य दिए गए हैं, जिनका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। लेकिन आपने अब तक ऐसा कोई वक्तव्य नहीं सुना है, जिसका प्रतिवाद न किया जा सके।
इसका क्या मतलब हुआ? यह तो बड़ी विरोधाभासी बात हो गई। इसका मतलब यह है कि अगर आप प्रतिवाद कर पाते हैं तो उसका कुल कारण इतना है कि जो वक्तव्य दिया गया, उसको आप समझ नहीं पाते; और जो आप समझते हैं, उसका प्रतिवाद करते हैं। जो वक्तव्य दिया गया है, उसे आप समझ नहीं पाते। समझ पाएं तो ऐसे वक्तव्य दिए गए हैं जिनका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। लेकिन जो आप समझ पाते हैं, उसका प्रतिवाद किया जा सकता है। आप अपनी ही समझ का प्रतिवाद करते रह सकते हैं।
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