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ताओ उपनिषद भाग ३
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शिलाखंड गंड्डू के ऊपर फैलता हुआ चला गया है। वह बूढ़ा सरक कर चल कर — जिसकी आधी कमर झुकी हुई है - जाकर उस पत्थर के किनारे खड़ा हो गया। उसका आधा पैर का पंजा खड्ड में झुक गया, सिर्फ आधे पैर के बल वह उस खड्ड पर खड़ा है, जहां एक सांस चूक जाए वह सदा के लिए खो जाए। उसने इस युवक को कहा कि अब तू भी आ करीब और ठीक ऐसे ही मेरे पास खड़ा हो जा !
उस युवक ने कहा कि मेरी हिम्मत नहीं पड़ती, हाथ-पैर कंपते हैं
उस बूढ़े ने कहा, जब हाथ-पैर कंपते हैं, तो निशाना सधा हुआ हो कैसे सकता है ? अगर हाथ कंपता है, तो ती तो हाथ से ही छूटेगा, कंप जाएगा। तेरे निशाने लग जाते होंगे; क्योंकि जो आब्जेक्ट तू चुनता है, काफी बड़े हैं। एक तोते को तूने चुन लिया। तोता काफी बड़ी चीज है। अगर तेरा हाथ थोड़ा कंप भी रहा हो तो भी तोता मर जाएगा। लेकिन तू अगर घबड़ाता है और कंपता है और तेरा हाथ कंपता है, तो ध्यान रख, तेरे भीतर आत्मा भी कंपती होगी। वह कंपन कितना ही सूक्ष्म वह कंपन जब खो जाता है, तब कोई धनुर्विद होता है। और जब वह कंपन खो जाता है, तब धनुष-बाण की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती।
उस बूढ़े ने आंखें ऊपर उठाईं। एक पक्षियों की, तीस पक्षियों की कतार जाती थी। उसकी आंख के ऊपर और नीचे गिरते ही तीसों पक्षी नीचे आकर गिर गए। उस बूढ़े ने कहा कि यह खयाल - जब आत्मा कंपती न हो— कि नीचे गिर जाओ, काफी है। यह भाव तीर बन जाते हैं।
यह एक लाओत्सियन पुरानी कथा है। इस सूत्र को समझने में आसानी होगी।
कहता है लाओत्से, 'एक कुशल धावक पदचिह्न नहीं छोड़ता है। '
जो दौड़ने में कुशल है, अगर उसके पदचिह्न बन जाते हों तो कुशलता की कमी है। जमीन पर हम चलते हैं तो पदचिह्न बनते ही हैं। लेकिन पक्षी आकाश में उड़ते हैं तो कोई पदचिह्न नहीं बनता। कुशलता जितनी गहरी होती जाती है, उतनी आकाश जैसी होती जाती है। कुशलता जितनी गहरी होती जाती है, उतनी सूक्ष्म हो जाती है, स्थूल नहीं रह जाती । स्थूल में पदचिह्न बनते हैं, सूक्ष्म में कोई पदचिह्न नहीं बनते। और जितना सूक्ष्म हो जाता है अस्तित्व, उतना ही पीछे कोई निशान नहीं छूट जाता। अगर आप जमीन पर दौड़ेंगे तो पदचिह्न बनेंगे। लेकिन दौड़ने का एक ऐसा ढंग भी है कि दौड़ भी हो जाए और कहीं कोई पदचिह्न भी न छूटे।
च्वांगत्से ने, लाओत्से के शिष्य ने कहा है कि जब तुम पानी से गुजरो और तुम्हारे पैर को पानी न छुए, तभी तुम समझना कि तुम संत हुए, उसके पहले नहीं। और ऐसा मत करना कि किनारे बैठे रहो और पैर सूखे रहें तो तुम सोचो कि संत हो गए हो, क्योंकि पैर पर पानी नहीं है। पानी से गुजरना और पैर को पानी न छुए, तो ही जानना कि संत हो गए हो ।
जटिल है बात थोड़ी। एक आदमी संसार छोड़ कर भाग जाता है— पानी छोड़ कर भाग जाता है, किनारे बैठ जाता है । फिर पैर सूखे रहते हैं। इसमें कुछ गुण नहीं है, पैर सूखे रहेंगे ही। लेकिन यही आदमी बीच बाजार में खड़ा है, घर में खड़ा है, पत्नी-बच्चों के साथ खड़ा है, धन-दौलत के बीच खड़ा है; जहां सब उपद्रव चल रहा है, वहां खड़ा है, और इसके पैर नहीं भीगते हैं; तभी जानना की संतत्व फलित हुआ है।
संत की परीक्षा संसार है। संसार के बाहर संतत्व तो बिलकुल आसान चीज है। लेकिन वह संतत्व नपुंसक है, इंपोटेंट है। जहां कोई गाली नहीं देने आता, वहां क्रोध के न उठने का क्या अर्थ है? या जहां जो भी आता है, प्रशंसा करता आता है, वहां क्रोध के न उठने का क्या अर्थ है ? जहां उत्तेजनाएं नहीं हैं, टेंपटेशंस नहीं हैं, जहां वासनाओं को भीतर से बाहर खींच लेने की कोई सुविधा नहीं है, वहां अगर वासनाएं थिर मालूम पड़ती हों तो आश्चर्य क्या है ? लेकिन जहां सारी सुविधाएं हों, सारी उत्तेजनाएं हों, जहां प्रतिपल आघात पड़ता हो प्राणों पर, जहां सोई हुई वासना को