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अहत की अनूठी दृष्टि लाओत्से की
लेकिन जो दिन भर लकड़ी काटा है, वह बिस्तर पर गिरता भी नहीं है और नींद आ जाती है। उसे पता भी नहीं चलता कि कब उसके शरीर ने बिस्तर को छुआ, उसके पहले उसके प्राण निद्रा को छु लेते हैं। और वह जो आदमी दिन भर ऊंघता रहा है, अपनी आरामकुर्सी पर बैठा रहा है, बिस्तर पर लेटा रहा है, वह रात करवटें बदलता है।
आपको पता है, ये करवटें परिपूरक हैं। जो दिन में नहीं कर पाया, वह उसे रात में करना पड़ता है। उतना श्रम तो करना जरूरी है। हजार, पांच सौ करवटें बदल कर थोड़ा-बहुत सुबह-सुबह सो पाता है। ये करवटें, जिसने लकड़ी फाड़ी है, दिन में ही बदल ली उसने। और अच्छी तरह बदल लीं, बिस्तर भी कोई जगह है व्यायाम करने के लिए? लेकिन अधिक लोग, जो दिन में व्यायाम नहीं कर रहे, रात बिस्तर में व्यायाम करेंगे ही। उनकी जिंदगी बड़ी अस्तव्यस्त हो जाएगी। जब व्यायाम करना था, तब वे ऊंघते रहे; जब सोना था, तब वे व्यायाम करते रहे। उनका सब जीवन विपरीत जालों में उलझ जाएगा-अपने ही कारण।
नींद विपरीत नहीं है जागने के। और लाओत्से कहता है, गति विपरीत नहीं है थिरता के, परिपूरक है।
तब एक नया आयाम खुलता है सोचने का। इसका मतलब यह हुआ कि दौड़ते हुए भी ऐसा हुआ जा सकता है कि भीतर कोई न दौड़े। और जब तक ऐसा सूत्र न मिल जाए कि दौड़ते हुए भी आप जानें कि आप नहीं दौड़ रहे हैं, तब तक आपको जिंदगी के रहस्य का द्वार नहीं मिलेगा। तब काम करते हुए भी कोई विश्राम में बना रह सकता है।
और तब, तब जीवन के सब द्वंद्वों के बीच में एक सूत्र मिल जाता है। तब रात सोए हुए भी भीतर कोई जागा रह सकता है। और तब दिन के सारे श्रम के बीच भी भीतर कोई विश्राम में बैठा रह सकता है। और तब चाहे जीवन में कितनी ही धूप हो, भीतर एक छाया बनी रहती है। और चाहे कितनी ही बेचैनी के बवंडर उठे, एक केंद्र पर सब शांत
और मौन रहता है। और मजा यह है कि जितनी तीव्रता होती है इन बवंडरों की, उतनी ही गहरी वह शांति अनुभव होती है। वह इससे नष्ट नहीं होती। क्योंकि ये परिपूरक हैं। इसलिए जीवन में जितना तूफान होता है, उतनी ही गहन शांति का अनुभव होता है। और जीवन में चारों तरफ कितने ही दुखों की वर्षा होती रहे, एक भीतर सुख की वीणा बजती रहती है। जितने जोर से दुखों की होती है वर्षा, उतने ही जोर से उस वीणा का स्वर गतिमान हो जाता है। क्योंकि परिपूरक है, विपरीत नहीं है। एक-दूसरे का दुश्मन नहीं है, साथी है।
अद्वैत की यह अनूठी बात है। लाओत्से अद्वैत की दिशा में यह अनूठा कदम उठा रहा है। वह यह कह रहा है कि जहां-जहां तुम्हें विपरीत दिखाई पड़े, तुम विपरीत मान लेते हो, वहीं भूल हो जाती है। विपरीत मानना ही मत।
और जहां तुम्हें विपरीत दिखाई पड़े, वहां तुम विपरीत को साधना, एक को छोड़ कर नहीं, दोनों को साध कर, साथ ही साध कर। इसका मतलब हुआ कि संन्यास अगर वास्तविक हो तो संसार में ही हो सकता है।
इसलिए जब मुझसे कोई आकर कहता है कि हम संसारी हैं, हम संन्यासी कैसे हो जाएं? लोग मुझसे आकर कहते हैं कि आप यह क्या उपद्रव कर रहे हैं? संसारियों को संन्यास दे रहे हैं! संन्यास तो तभी हो सकता है, जब कोई घर-द्वार छोड़ कर, सब छोड़ कर भाग जाए। पलायन में ही संन्यास हो सकता है, त्याग में ही संन्यास हो सकता है। उनका कसूर नहीं है। द्वंद्व की भाषा में सोचने की आदत।
मेरी दृष्टि में तो संन्यास हो ही केवल संसार में सकता है। और जिसका संन्यास संसार में नहीं हो सकता, उसका संन्यास कभी नहीं हो सकता।
लाओत्से कहता है, इसलिए संत दिन भर यात्रा करता है, और फिर भी यात्रा नहीं करता।
बुद्ध चालीस वर्ष तक चलते रहे ज्ञान के बाद। ज्ञान के बाद ही वे बुद्ध हुए। चालीस वर्ष तक चलते रहे, एक गांव से दूसरे गांव, दूसरे गांव से तीसरे गांव। अनथक यात्रा चलती रही। एक शिष्य उनका, मोग्गलायन, एक दिन बुद्ध को पूछता है, आप इतना चलते हैं, थकते नहीं? बुद्ध ने कहा, जो चलता हो, वह थकेगा ही; मैं चलता ही नहीं
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