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ताओ उपनिषद भाग ३
एक आदमी है जो गति को इतना पकड़ता है, बाजार में, दुकान में, व्यापार में, राजनीति में गतिमान रहता है, वह यह भूल ही जाता है कि मेरे भीतर एक केंद्र भी है, उसी केंद्र के ऊपर यह सारी गति है। और वह केंद्र चलता नहीं, चलायमान नहीं है, थिर है। वह भूल ही जाता है। यही भूल उसका दुख बन जाती है।
फिर इस भूल से एक दूसरी भूल पैदा होती है। फिर वह सोचता है-जब थक जाता है, ऊब जाता है इस दौड़-धूप से, इस आपा-धापी से बेचैन हो उठता है, तब वह सोचता है-छोड़ो सब गति, अब तो थिर हो जाओ, ठहर जाओ, हटाओ सब यह भाग-दौड़, अब तो उस केंद्र को पा लो जो चलता ही नहीं है। तब वह सारी गति के विपरीत केंद्र को खोजने लगता है। तब वह सारी गति छोड़ कर, आंख बंद करके, प्रतिमा बन कर सोचता है कि केंद्र को पा लूं। तब वह दूसरी भूल कर रहा है। पहले उसने एक भूल की थी कि केंद्र को छोड़ कर गति को पा लूं। अब वह एक दूसरी भूल कर रहा है कि गति को छोड़ कर केंद्र को पा लूं। चुनाव कर रहा है अधूरे का।
अधूरा इस जगत में नहीं है। गति में ही जो केंद्र को पा ले, वही केंद्र को पा सकता है। केंद्र के साथ भी जो गति में रह ले, उसी ने केंद्र को पाया ऐसा जानना। जो अपनी सारी भाग-दौड़ में भी थिर हो, वही साधु है। और जो अपनी थिरता में भी भाग सके, दौड़ सके, वही साधु है।
जगत में दो तरह के असाधु हैं। असाधु का मतलब अंश को चुनने वाले लोग। एक, वे कहते हैं कि हम संसारी हैं, हम ध्यान कैसे करें? क्योंकि ध्यान तो उस बिंदु को खोजने की विधि है, जहां गति नहीं है। वे कहते हैं, हम संसारी हैं, हम ध्यान कैसे करें? वे कहते हैं, हम संसारी हैं, हम संन्यासी कैसे हो जाएं? जब संसार छोड़ेंगे, तब संन्यासी हो जाएंगे। और जब छोड़ेंगे सब दौड़-धूप, तब ध्यान कर लेंगे। इसलिए कुशल, होशियार, चालाक लोगों ने बना रखा है कि जब मरने के करीब होंगे-जब गति छोड़ना भी न पड़ेगी, अपने आप छूटने लगेगी, जब दौड़ना भी चाहेंगे तो पैर जवाब दे देंगे-तब हम ध्यान कर लेंगे। वह मौका अच्छा है।
इसलिए हमने संन्यास को बूढ़े के साथ जोड़ रखा है। उसका कोई संबंध बूढ़े से नहीं है। मगर हमारी द्वैत की सोचने की व्यवस्था में यही उचित मालूम पड़ता है। वह तो हमारा बस नहीं है, नहीं तो हम मरने के बाद, क्योंकि तब फिर कोई उपद्रव ही नहीं रह जाएगा, न दुकान, न बाजार; मर ही गए, फिर कब्र में ध्यान साधते रहेंगे। लेकिन वह उपाय नहीं मालूम पड़ता, इसलिए बिलकुल मरते-मरते, मरते-मरते...। आदमी मर रहा है और लोग उसको गंगाजल पिला रहे हैं और राम-नाम पिला रहे हैं। इनको जिंदगी भर फुर्सत न मिली गंगाजल पीने की। बहुत काम था, व्यस्त थे। और जल्दी भी क्या थी? आखिरी क्षण पी लेंगे।
ये जो...मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम संसारी हैं, हम ध्यान कैसे कर सकते हैं? वे क्या कह रहे हैं? वे यही कह रहे हैं कि अभी हम गति में हैं तो हम ठहर कैसे सकते हैं? उनको हम जरा और तरफ से समझें।
आप किसी से जाकर कहें कि मैं तो दिन भर काम में लगा रहता हूं, इसलिए विश्राम कैसे कर सकता हूँ? विश्राम तो विपरीत है। किसी से आप कहें कि मेरा तो काम जागने का है, मैं सो कैसे सकता हूं?
लेकिन दिन भर आप जागते हैं और रात आप सो जाते हैं। न केवल इतना, बल्कि जितना ठीक से जागते हैं, उतना ठीक से सो जाते हैं। सोना और जागना विपरीत आपको दिखाई पड़ते हों, विपरीत नहीं हैं, परिपूरक हैं। जो आदमी दिन में ठीक से जागा है, रात गहरी नींद सो जाता है। जो आदमी दिन में ऊंघता रहा है, वह रात सो नहीं पाता। जो दिन भर खाली बिस्तर पर पड़ा रहा है, वह रात कैसे सो पाएगा? अगर हमारा तर्क सही होता तो जिसने दिन भर ऊंघने का अभ्यास किया, उसको गहरी नींद आनी चाहिए; क्योंकि दिन भर का अभ्यासी है। और अभ्यास का तो फल मिलना चाहिए। यह क्या उलटा हो रहा है? और जो आदमी दिन भर गड्ढा खोदता रहा, लकड़ियां काटता रहा, पत्थर तोड़ता रहा, इसको तो रात नींद आनी ही नहीं चाहिए। दिन भर का अभ्यास जागने का!
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