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ताओ उपनिषद भाग ३
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हमारे पास सुख के बहुत साधन हो गए हैं। और इतने साधन के बाद हमें समझ में आता है, सुख बिलकुल भी नहीं मिल रहा है। इससे हमारी बेचैनी बढ़ गई है। एक गरीब आदमी है, भिखमंगा है, सड़क पर भीख मांग रहा है; सोचता है, महल मिल जाए तो सुख मिलेगा। महल सिर्फ उनके लिए होते हैं, जो महलों में नहीं होते। महल सिर्फ उनके लिए होते हैं, जो महलों में नहीं होते। उनके लिए महलों की जो महिमा है, उसका कोई अंत नहीं है।
फिर एक दिन यह भिखमंगा महल में पहुंच जाता है; तब इसे पहली दफे पता चलता है, महल तिरोहित हो गया। वह जो महिमावान महल था, जो रास्ते पर सोकर सपने में देखा था, जो सदा मन को घेरे रहा, आच्छादित किए रहा, जिसके लिए सब तरह की यात्राएं कीं और बामुश्किल इस महल में प्रवेश किया, वह महल यह नहीं है। वह महल कोई और था।
असली महल सपनों के महल को तोड़ देते हैं। असलियत सदा ही सपनों को तोड़ने वाली सिद्ध होती है। सपनों की नावें असलियत के तट से लग कर टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं। इसलिए हम इतने दुखी हैं! हमने सब महल पा लिए, जो गरीब आदमी पाना चाहता था।
__इसलिए अगर अमरीका भारत से ज्यादा दुखी मालूम पड़े तो हैरानी की बात नहीं है। और अगर अमरीका के आदमी को लगता हो कि ध्यान कैसे पाऊं? और धर्म कैसे पाऊं? और कैसे ऋषिकेश पहुंचं? और कैसे साधना करूं? तो हमको लगता है, पागल तो नहीं हो गए हैं ये लोग! वे जो ऋषिकेश में रहते हैं, उनको लगता है, जरूर इनका दिमाग फिर गया है। क्योंकि वे जिंदगी से वहां रह रहे हैं और उन्हें कुछ भी नहीं हुआ है। ये अमरीका से लोग भागे क्यों चले आ रहे हैं ऋषिकेश की तरफ? इनको वह महल मिल गया है, जो अभी ऋषिकेश के लोगों को मिलने की देरी है। इस महल को पाकर इनके सब सपने टूट गए हैं।
सुख जब उपस्थित हो जाता है, तब हमें पता चलता है कि वह मिला नहीं। यह बड़ी कठिन बात हो गई। जब मिलता नहीं, तब भी दुख देता है; जब मिल जाता है, तब भी दुख देता है। बुद्ध ने इसे देख कर इस जगत का स्वभाव कहा कि दुख है इस जगत का स्वभाव। जो मिल जाए वह दुख देता है; जो न मिले वह दुख देता है। जिस स्त्री को चाहो; न मिले, जिंदगी भर दुख होता है। मजनू से पूछो, दुखी है। पर उनको पता नहीं कि लैला मिल जाती तो कितना दुख होता। वह उनसे पूछो जिनको मिल जाती है। जिनको मिल जाती है, वे तलाक के दफ्तर में खड़े हुए हैं-तलाक कैसे हो! डाइवोर्स चाहिए! जिनको नहीं मिलती, वे कविताएं गा रहे हैं, आंसू बहा रहे हैं। पता नहीं इनमें दुखी कौन है?
एक बात तय है कि जो नहीं मिलता वह भी दुख देता है, जो मिल जाता है वह भी दुख देता है। और शायद इन दोनों दुखों में पहला बेहतर है। कम से कम आशा तो बनी रहती है। दूसरे में आशा भी टूट जाती है। लेकिन इसका राज क्या है ? इतनी सुख की तलाश और सुख हाथ में क्यों नहीं? इसका राज?
लाओत्से बड़ी अदभुत बात कहता है। लाओत्से कहता है, 'मनुष्य अपने को पृथ्वी के अनुरूप बना रहा है; और पृथ्वी अपने को स्वर्ग के अनुरूप बना रही है।'
यह तकलीफ है। इसलिए मिलन कभी नहीं हो पाता। आप जिसके पीछे दौड़ रहे हैं, वह किसी और चीज के पीछे दौड़ रहा है। वह आपकी तरफ दौड़ ही नहीं रहा है। इसलिए आप तकलीफ में हैं। यह जरा सूक्ष्म है। मैं आपको पाना चाहता हूं और आप किसी और को पाना चाहते हैं। तो यह मिलन होगा कैसे? इस मिलन का एक ही रास्ता है कि मैं उसे पाने में लग जाऊं, जिसे आप पाना चाहते हैं। तो यह मिलन हो सकता है। नहीं तो यह मिलन नहीं हो सकता। और अगर मैं आपको पकड़ भी लूं तो आप छूट कर भागेंगे; क्योंकि आप मुझसे मिलने को उत्सुक नहीं हैं। आप कहीं और जाना चाहते हैं।
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