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________________ स्वभाव की उपलब्धि अयात्रा में है इसलिए नहीं गिनना चाहता है लाओत्से, फिर भी गिनता है; कहता है, और सम्राट भी उनमें से एक है। ये चार हैं महान तत्व, और यह अहंकार भी उनमें से एक है। आज तक किसी का अहंकार भर नहीं पाया। कभी भरेगा भी नहीं। कोई उसके भरने का उपाय भी नहीं है। आप उसको जितना दें, उतनी उसकी मांग बढ़ जाती है। मांगना उसका स्वभाव है। जितना आप उसको देते हैं, उतना उसका स्वभाव और मांगता चला जाता है। मजे की बात है, अहंकार को जो मिल जाता है वह व्यर्थ हो जाता है, और जो नहीं मिलता वही सार्थक होता है। अहंकार जहां पहुंच जाता है, अंधा हो जाता है; और जहां नहीं पहुंचता, वहां उसकी आंखें टंगी रहती हैं। आप भी कहीं पहुंच गए हैं। सभी कहीं पहुंच गए हैं। लेकिन जो जहां है, वहां तृप्त नहीं है। अगर आप डिप्टी मिनिस्टर हैं तो परेशान। जब नहीं थे, तब भी परेशान थे। तब सिर्फ एम.एल.ए. थे। जब एम.एल.ए. नहीं थे, तब भी परेशान थे। तब एक साधारण नागरिक थे। साधारण नागरिक से बड़ी चेष्टा की, एम.एल.ए. हो गए। सोचा था सब भर जाएगा। जाकर पाया, एम.एल.ए. होना भी कोई होना है जब तक कि डिप्टी मिनिस्टर न हो जाएं। फिर डिप्टी मिनिस्टर-बड़ी दौड़-धूप, बड़ी मेहनत-डिप्टी मिनिस्टर हो गए हैं। अब डिप्टी मिनिस्टर हो गए हैं, उपमंत्री हो गए हैं, लेकिन अब मिनिस्टरशिप नहीं दिखाई पड़ती, सिर्फ डिप्टीशिप खटकती है। वह जो डिप्टी है वह अखरता है, मन को चोट देता है, कीले की तरह चुभता है कि डिप्टी होना भी कोई होना है, कम से कम मिनिस्टर तो चाहिए। मिनिस्टर होते ही चीफ मिनिस्टर अखरने और खलने लगता है। और यात्रा चलती चली जाती है। जो आदमी जहां है, वहीं अतृप्त होता है। यह अहंकार का लक्षण है। और जहां नहीं है, वहां के लिए सोचता है, तृप्त हो सकूँगा। इन चार के बीच हमारी जीवन की व्यवस्था है। लाओत्से कहता है, 'मनुष्य अपने को पृथ्वी के अनुरूप बनाता है।' पृथ्वी-सुख। मनुष्य अपने को पृथ्वी के अनुरूप बनाता है। मनुष्य पूरे समय कोशिश कर रहा है, सुखी हो जाए। सारी कोशिश यही है। आप कुछ भी कर रहे हों, इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या कर रहे हैं; एक बात तय है, आप सुखी होने की कोशिश कर रहे हैं। यह पूछना जरूरी नहीं है कि आप क्या कर रहे हैं-चोरी कर रहे हैं, कि साधुता कर रहे हैं, कि ईमानदारी कर रहे हैं, कि बेईमानी कर रहे हैं जो भी कर रहे हैं। यह बड़े मजे की बात है कि बेईमान और ईमानदार, साधु और असाधु, सबकी खोज एक है। सब सुख खोज रहे हैं। यह दूसरी बात है कि कोई बेईमानी से सोचता है कि मिल जाएगा, कोई ईमानदारी से सोचता है कि मिल जाएगा। यह उनकी समझ का फर्क है, लेकिन खोज में कोई अंतर नहीं है। मिलेगा, नहीं मिलेगा, यह भी दूसरी बात है। लेकिन खोज सुख के लिए है। हर आदमी सुख खोज रहा है; और हर आदमी दुख पा रहा है। और हर आदमी तेजी से सुख की तरफ दौड़ रहा है, और हर आदमी तेजी से दुख के गर्त में गिरा जा रहा है। 'मनुष्य अपने को पृथ्वी के अनुरूप बनाता है।' मनुष्य पूरे वक्त कोशिश कर रहा है कि मैं कैसे सुख के अनुरूप हो जाऊं। लेकिन क्या है अड़चन? यह सुख नाराज क्यों है मनुष्य पर? इतनी चेष्टा असफल क्यों हो जाती है? मनुष्य सुखी क्यों नहीं हो पाता? और दुर्घटना यह है कि मनुष्य जितना निकट पहुंचता मालूम पड़ता है, उतना दुखी होता जाता है। हम जितने पीछे लौटें, जितना अशिष्ट समाज हो, असभ्य समाज हो, प्रिमिटिव हो, सुख के साधन न हों, वह कम दुखी मालूम पड़ता है। होना उलटा चाहिए। हम ज्यादा सुखी होने चाहिए; आदिम लोग ज्यादा दुखी होने चाहिए। लेकिन उलटा मालूम पड़ता है, हम ज्यादा दुखी और वे ज्यादा सुखी मालूम पड़ते हैं। क्या हो गया है? हमारे दुख का इतना घनापन क्यों है? इतनी त्वरा क्यों है? हमारा दुख इतना बुखार की तरह हमारी छाती पर क्यों है? | 1871
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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