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________________ स्वभाव की उपलब्धि अयात्रा में हैं 181 सही, चांद से किसी तरह जुड़ा है। इसीलिए आनंद की बात हमें थोड़ी सी समझ में आ सकती है। हम सुख से जुड़े हैं। पर आनंद भी बहुत दूर है। और दूर इस कारण भी है कि आनंद की पहली शर्त है जो, बहुत कठिन है। और वह यह है कि जब तक हम सुख का त्याग न करें। स्वभावतः जो आदमी झील के चांद को छोड़ने को राजी न हो, उसकी आंखें आकाश के चांद की तरफ उठेंगी भी कैसे? झील के चांद को ही जो चांद समझ रहा हो और वहां से आंखें हटाने को राजी न हो, वह आकाश के चांद की तरफ देखेगा कैसे ? माना कि झील का चांद आकाश के चांद से जुड़ा है, लेकिन विपरीत है। सब प्रतिबिंब विपरीत होते हैं। रिफ्लेक्शन है, उलटा है। इसलिए अगर हम इस झील के चांद की तलाश में लगे रहें तो एक बात पक्की है कि आकाश का चांद हमें कभी भी नहीं मिलेगा। हमें इसके विपरीत चलना होगा। इसके हम जितने उलटे यात्रा करेंगे, उतना हम आकाश के चांद के पास पहुंचेंगे। तप का यही अर्थ है । सुख की विपरीत यात्रा है वह । चांद की खोज है, झील के चांद का त्याग है। तो यद्यपि हमें समझ में आता है आनंद, लेकिन जिसके कारण समझ में आता है, वही बाधा भी है। सुख ही समझने का कारण है; सुख ही हमारी बाधा , अड़चन है। आनंद को पाना हो तो सुख छोड़ना पड़े। दुख को हम सब छोड़ना चाहते हैं। बड़े मजे की बात है, दुख को हम छोड़ना चाहते हैं और दुख हमें कभी नहीं छोड़ता । सुख को हम पकड़ना चाहते हैं और सुख को हम कभी पकड़ नहीं पाते। लेकिन कितनी बार यह अनुभव होता है, पर इस अनुभव से हम कोई निष्कर्ष नहीं निकालते । दुख को हम छोड़ना चाहते हैं और छोड़ नहीं पाते; सुख को हम पकड़ना चाहते हैं और पकड़ नहीं पाते। तप इससे उलटा प्रयोग है। तप इस बात का प्रयोग है कि अब तक सुख को पकड़ने की कोशिश की और नहीं को पकड़ पाए, अब सुख को छोड़ेंगे; अब तक दुख से छूटने की कोशिश की और दुख को नहीं छोड़ पाए, अब दुख पकड़ेंगे। और बड़े मजे की बात है कि जैसे सुख को पकड़ने से सुख नहीं पकड़ में आता, दुख पकड़ने से दुख पकड़ में नहीं आता। और जैसे दुख को छोड़ने से दुख नहीं छूटता, वैसे ही सुख को छोड़ने से सुख नहीं छूटता। असल में, जिसे हम पकड़ना चाहते हैं, वही छूट जाता है। और जिसे हम छोड़ देते हैं, वह हमारे पकड़ के भीतर आ जाता है। लेकिन यह उलटा नियम अनेक-अनेक बार अनुभव में आने पर भी हम कभी इसका विज्ञान नहीं बना पाते। वही विज्ञान धर्म है। सामान्य आदमी के अनुभव में और वैज्ञानिक के अनुभव में इतना ही फर्क है। आपको अनुभव होते हैं, अनुभव आणविक रह जाते हैं - एक अनुभव, दो अनुभव, तीन अनुभव । वैज्ञानिक बुद्धि तीन अनुभव के बीच जो सार-सूत्र है, उसको खोज लेती है; अनुभव को छोड़ देती है। जिंदगी में मुझे हजार अनुभव हों, लेकिन उनकी राशि इकट्ठी करता चला जाऊं, आणविक राशि हो, सब पर लगा दूं एक, दो, हजार अनुभव हुए; लेकिन हजार अनुभव जिस नियम के कारण हो रहे हैं, उसका अगर पता न लगा पाऊं, तो मैं खोजी नहीं हूं। वैज्ञानिक बुद्धि का इतना ही अर्थ है कि हजार जो अनुभव हुए, उनका सार-सूत्र हम खोज लें। न्यूटन के पहले भी वृक्ष से फल जमीन पर गिरता था । और सेब का फल ! बड़ा पुराना इतिहास है उसका, अदम को भी ईव ने जो पहला फल तोड़ कर दिया था, वह सेब का फल था। तो अदम के जमाने से लेकर सदा सेब का फल जमीन पर गिरता रहा। लेकिन गुरुत्वाकर्षण का नियम न्यूटन निकाल पाया। फल रोज गिरते थे। हजारों लोगों ने फलों को गिरता देखा। यह अनुभव नियम नहीं बन पाया। लेकिन न्यूटन ने पहली दफे पूछा कि यह फल नीचे ही क्यों गिरता है ? यह पागलपन का सवाल है । वैज्ञानिक हमेशा पागलपन का सवाल पूछते हैं। सामान्य आदमी नहीं पूछते; इसलिए सामान्य आदमी सामान्य आदमी रह जाते हैं। यह बिलकुल पागलपन का सवाल है न्यूटन का यह पूछना कि फल नीचे ही क्यों गिरता है? हम बुद्धिमान लोग कहते कि तुम्हारी बुद्धि तो ठीक है? फल नीचे गिरता ही है,
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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