SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वभाव की उपलब्धि अयात्रा में हैं प्रामाणिक है। वह आपसे उठ रहा है। और यह चदरिया आप बाजार से खरीद लाए हैं, इसे ऊपर से आपने ढांक लिया। इससे दूसरे को धोखा हो सकता है। लेकिन सच तो यह है, दूसरे को भी धोखा होने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जिसके भीतर से राम उठ रहा हो, चादर महत्वपूर्ण न रह जाएगी। और अगर ओढ़ने वाले को चादर बहुत महत्वपूर्ण है तो दूसरे को भी धोखे में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। यह अपने ही संदेह को ढांकने की व्यवस्था है। . लेकिन दूसरा धोखे में पड़ भी जाए, मजा तो यह है कि हम खुद भी धोखे में पड़ जाते हैं। अपने ही ऊपर ओढ़ी हुई चादर को देख कर कहते हैं कि श्रद्धा से भरे हुए हैं हम। सब तथाकथित श्रद्धाओं के भीतर संदेह का कीड़ा होता है। और जब तक वह मिट न जाए, तब तक श्रद्धा का कोई आगमन नहीं है। इसलिए हमने सारी दुनिया को सिखा-सिखा कर कि ईश्वर पर भरोसा करो, ईश्वर पर भरोसा करो, धर्म को हम नहीं ला पाए; केवल लोगों को बेईमान बना पाए हैं। जिस पर भरोसा किया कैसे जा सके, जिसे हम जानते न हों; उस पर भरोसे की शिक्षण दे-दे कर हमने लोगों को झूठे धार्मिक बनाने में सफलता पा ली है। इसलिए सारी जमीन धार्मिक-और एक धार्मिक आदमी नहीं। सब धार्मिकता ओढ़ी हुई। लेकिन धार्मिक आदमी अभी भी चिल्लाए चले जाते हैं, वे कहते हैं, हर बच्चे को दूध के साथ धर्म पिला दो। उनको डर लगा रहता है पूरे वक्त कि जरा बच्चे में अपनी बुद्धि आई कि फिर चदरिया ओढ़ाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। वह बुद्धि भीतर से सवाल उठाने लगेगी। तो इसके पहले कि बुद्धि जगे, तुम जहर डाल दो, तुम्हें जो पिलाना हो पिला दो, उसको इतने गहरे में पड़ जाने दो कि कल उसकी बुद्धि भी सवाल उठाए तो भी उसे ऐसा लगे कि भीतर से नहीं आ रहा है। और उसकी झूठी श्रद्धा, जो बाहर से डाली गई है, वह इतने गहरे में जड़ जमा ले कि उसे धोखा होने लगे कि भीतर से आ रही है। इसलिए हम छोटे-छोटे अबोध बच्चों के साथ जो बड़े से बड़ा अपराध कर सकते हैं, वह करते हैं। हम उन्हें ज्ञान के मार्ग पर नहीं ले जाते, हम उन्हें विश्वास के मार्ग पर ले जाते हैं। विश्वास धोखा है ज्ञान का। विश्वास श्रद्धा नहीं है। विश्वास अंधापन है। श्रद्धा आंख का नाम है। इस जगत में जो गहरी से गहरी आंख हो सकती है, वह श्रद्धा है। लाओत्से ईश्वर की बात नहीं करता। और लाओत्से की चिंतना बहुत वैज्ञानिक है। और अगर कभी इस जमीन पर कोई धर्म आता हो तो उसे कहीं लाओत्से की सीढ़ियों से आना पड़ेगा। बाकी सीढ़ियां असफल साबित हुई हैं। लाओत्से कहता है, ईश्वर से तो क्या संबंध होगा आपका? इतना दूर है मामला। निकट से शुरू करो। दूर की बात मत करो, निकट से शुरू करो। कल दूर भी पहुंच सकते हो, लेकिन यात्रा निकट से शुरू करो। - जीवन निकटतम है। और अगर मेरा जीवन पर ही भरोसा नहीं है, उससे भी मैं छीना-झपटी कर रहा हूं, तो फिर मेरा कोई भरोसा किसी पर नहीं हो सकता। जीवन तो हमारे रग-रग में समाया हुआ है। जीवन तो हम हैं; जीवन के कारण हम हैं। जीवन का होना ही हमारा होना है। हमारे होने में जीवन छिपा है। इस पर भी हमारा भरोसा नहीं है। ऐसा जो गैर-भरोसा है, वह तोड़ा जा सकता है। क्योंकि जीवन से परिचय कोई दूर की बात नहीं है, किसी आकाश में बैठे ईश्वर की बात नहीं है। यहां रग-रग में दौड़ते हुए जीवन की बात है। इससे संबंध बन सकता है। लाओत्से चार आदर्शों की बात करता है। और एक-एक क्रम से वे आदर्श हम समझें, तो अंततः हम जो निकटतम है और दूरतम मालूम पड़ता है, उस तक पहुंच सकते हैं। कहता है, 'ताओ महान है, स्वर्ग महान है, पृथ्वी महान है, सम्राट महान है।' ये सीढ़ियां हैं। ताओ है श्रेष्ठतम, अंतिम। लेकिन ताओ हमारी पकड़ के बहुत दूर है। हमारे हाथ वहां तक पहुंच नहीं पाएंगे। यद्यपि वह हमारे हाथों के भीतर भी छिपा है, लेकिन यह उस दिन की बात है जब हमारी पहचान हो जाएगी उससे। अभी तो ताओ बहुत दूर है। सा 179
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy