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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ पर पहुंच भी सकता है लेकिन झूठे विश्वासी कभी विश्वास पर नहीं पहुंच सकते। क्योंकि झूठे विश्वासियों को तो यह खयाल है कि उनमें श्रद्धा है ही। जिस ईश्वर को आप जानते नहीं, उसमें श्रद्धा हो नहीं सकती। कितना ही झुठलाएं और कितना ही समझाएं अपने को, कितना ही अपने ऊपर सिद्धांतों का आवरण ओढ़े और कितना ही अपने हृदय को दबाएं और कितनी ही अपनी बुद्धि को कहें कि संदेह मत उठा, लेकिन जिसे आप जानते नहीं हैं उस पर आपकी श्रद्धा हो नहीं सकती। श्रद्धा आप कर सकते हैं, लेकिन श्रद्धा हो नहीं सकती। गहरे में अश्रद्धा मौजूद ही रहेगी। केंद्र पर अश्रद्धा मौजूद ही रहेगी। और परिधि की श्रद्धा का कोई भी मूल्य नहीं। जब तक कि आत्मगत न हो, जब तक कि भीतर तक उसका तीर प्रवेश न कर जाए, जब तक आपके भीतर ऐसी कोई जगह न रह जाए जहां तक श्रद्धा प्रविष्ट न हुई हो, सब कुछ श्रद्धा से भर जाए, रोआ-रोआं प्राणों का, संदेह की एक जरा सी सुविधा न रह जाए, तब तक श्रद्धा का कोई मूल्य नहीं। हम श्रद्धा के वस्त्र ओढ़े हुए होते हैं, आत्मा हमारी अश्रद्धा की होती है। इसलिए आस्तिक से आस्तिक आदमी को थोड़ा खरोंचें तो अश्रद्धा निकल आएगी। जिंदगी में खरोंच कभी-कभी अपने आप लग जाती है और अश्रद्धा निकल आती है। दुख आता है और आदमी कहने लगता है, ईश्वर का भरोसा डगमगा गया। खरोंच लगी-पराजय हो गई, हानि हो गई, सफलता न मिली-खरोंच लगी, श्रद्धा डगमगा जाती है। और इसी कारण, जिनको हम श्रद्धालु कहते हैं, वे श्रद्धा के संबंध में बात करने से भी भयभीत होते हैं। नास्तिक से चर्चा करने में भी उनकी आत्मा थर्राती है। क्या डर हो सकता है नास्तिक से आस्तिक को? यह बड़े मजे की बात है कि नास्तिक आस्तिकों से चर्चा करने में नहीं घबड़ाते, आस्तिक नास्तिकों से चर्चा करने में घबड़ाते हैं। निश्चित ही, नास्तिक की अश्रद्धा आस्तिक की श्रद्धा से ज्यादा मजबूत मालूम होती है। नास्तिक का संदेह ज्यादा प्रामाणिक मालूम होता है आस्तिक के विश्वास से। और कोई छोटा सा नास्तिक भी आपकी आस्तिकता को हिला दे सकता है। सच यह है कि आप आस्तिक हैं नहीं। आस्था इतनी सस्ती नहीं। मां के साथ दूध पीने में नहीं मिलती, न मां के खून से आती है, न समाज के शिक्षण से मिलती है, न धर्मशास्त्रों से मिलती है। आस्था इतनी सस्ती बात नहीं। और हम एक ऐसा असंभव कृत्य करने में लगे हैं हजारों वर्ष सेः उस पर श्रद्धा करना चाहते हैं जिसे हम जानते ही नहीं। और तर्क हमारा बड़ा मजेदार है। जिसे हम जानते नहीं, उस पर हम श्रद्धा इसलिए करना चाहते हैं ताकि हम उसे जान सकें। आस्तिक लोगों को समझाते हुए सुनाई पड़ते हैं कि अगर श्रद्धा करोगे तो ही जान पाओगे। और मजा यह है कि श्रद्धा बिना जाने हो नहीं सकती है। यह सारा भवन ही बेबुनियाद है। जान कर ही श्रद्धा हो सकती है। न जाने तो संदेह बना ही रहेगा। संदेह का मतलब ही इतना है, अगर हम गहरे में खोज करें तो संदेह का मतलब ही इतना है कि आपको पता नहीं है इसलिए संदेह है। संदेह अज्ञान है। इसलिए अज्ञान में श्रद्धा तो हो ही नहीं सकती। और अगर अज्ञान में भी श्रद्धा हो जाए तो इसका मतलब हुआ कि फिर ज्ञान में भी संदेह हो सकता है। अज्ञान में अगर श्रद्धा हो सकती है तो फिर ज्ञान में क्या होगा? फिर ज्ञान के लिए कुछ बचा ही नहीं। अज्ञान के साथ होता है संदेह। अज्ञान टूट जाए तो संदेह टूट जाता है। ज्ञान के साथ आती है श्रद्धा। ज्ञान का आगमन हो तो श्रद्धा छाया की तरह प्रवेश करती है। इसे हम ऐसा समझें कि संदेह भीतर के अज्ञान का सिर्फ संकेत है, सूचक है। श्रद्धा भीतर के ज्ञान की सूचक है। ज्ञान और अज्ञान तो होते हैं भीतर, सूचनाएं बाहर तक आती हैं। संदेह सूचना है। श्रद्धा भी एक सूचना है। जो ऊपर की सूचनाओं को बदल लेता है, वह अपने को धोखा दे रहा है। भीतर तो है अज्ञान, संदेह की खबर आ रही है; और आप अपने ऊपर, अपने वस्त्रों में श्रद्धा-श्रद्धा राम-नाम लिख कर चदरिया ओढ़ लेते हैं। वह भीतर से संदेह आता ही चला जाएगा। आपके चादर पर लिखा राम-नाम उस संदेह को मिटा नहीं पाएगा। वह संदेह आथेंटिक है, 1781
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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