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वर्तुलाकार अस्तित्व में यात्रा प्रतियात्रा भी है
इसलिए जो लोग मृत्यु को समझ लें, वे जन्म को भी समझ लेते हैं। जन्म को समझना मुश्किल है, क्योंकि आपको पता ही नहीं है क्या हो रहा है। लेकिन मृत्यु को आप समझ सकते हैं। और जो व्यक्ति मृत्यु को समझ ले, मृत्यु के बिंदु को ठीक से समझ ले, उसको जन्म का रहस्य भी समझ में आ गया। जिसने जान ली मृत्यु, उसने जीवन भी जान लिया। लेकिन मृत्यु से हम डरते हैं। इसलिए हम जीवन जानने से भी वंचित रह जाते हैं। मृत्यु और जन्म, एक ही बिंदु पर मिलते हैं।
हमारी सारी की सारी जीवन की गतिविधियां वर्तुलाकार हैं। और हम कहीं भी चले जाएं, हम अपने मूल बिंदु पर वापस लौट आते हैं। लाओत्से यह क्यों कह रहा है? लाओत्से यह कह रहा है कि तुम कितना ही कुछ करो, तुम अपने स्वभाव से दूर न जा सकोगे। तुम कितने ही दूर चले जाओ, तुम्हारा दूर जाना भी पास आने का ही रास्ता बनेगा। लाओत्से यह कह रहा है, अपने से दूर जाने का कोई भी उपाय नहीं है। तुम भटक सकते हो, धोखा दे सकते हो, सपने देख सकते हो; लेकिन तुम अपने से दूर नहीं जा सकते। और कितने ही दूर चले जाओ, तुम्हारा सब दूर जाना तुम्हारा अपने ही पास आने का उपाय है।
___ इसलिए कभी-कभी ऐसा होता है कि जो बहुत गहरे संसार में चला जाता है, वह अचानक अध्यात्म में आ जाता है। बीच में जो मीडियाकर्स हैं, वे हमेशा मुश्किल में होते हैं। इसलिए कभी कोई बाल्मीकि अचानक धार्मिक हो जाता है। हैरानी होती है, कोई अंगुलीमाल एकदम हत्या की दुनिया से बदलता है और बुद्ध उससे कहते हैं कि तुझसे ज्यादा शुद्ध ब्राह्मण खोजना मुश्किल है अंगुलीमाल! यह हत्यारा अचानक शुद्ध ब्राह्मण हो जाता है। क्या हुआ? यह इतनी दूर चला गया हत्या में कि वर्तुलाकार हो गई यात्रा।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पापी और अपराधी तो संत बन जाते हैं, तथाकथित साधु नहीं बन पाते। जिंदगी जटिल है। और उसके रास्ते इतने सीधे-सादे नहीं हैं जैसे हमें दिखाई पड़ते हैं। बहुत उलझे हैं।
यह लाओत्से का सूत्र बड़ा कीमती है, साधक के लिए बहुत कीमती है। तीन बातें स्मरण रख लेने जैसी हैं।
एक, लाख करो उपाय अपने से दूर नहीं जाया जा सकता। सब तरफ भटक कर, सब तरफ की यात्रा आखिर में अपने पर ले आती है। क्योंकि वह हमारा मूल बिंदु है।
दूसरी बात, जीवन की सब गतियां वर्तुल में हैं। इसलिए ऐसा, ऐसा सोचने की कोई भी जरूरत नहीं है कि कोई भी इतने पाप में पड़ गया है कि पुण्य को उपलब्ध न हो सकेगा। ऐसा सोचने की कोई भी जरूरत नहीं है कि कोई इतने संसार में गिर गया है कि मोक्ष का अधिकारी न हो सकेगा। सब यात्रा वर्तुल है। किसी भी बिंदु से लौटना हो सकता है। और किसी भी बिंदु से वापसी शुरू हो जाती है। और सच तो यह है कि अगर कोई जिद्द किए ही चला जाए नाक की सीध में तो हर यात्रा अपने पर ले आती है। इसलिए जिद्दी अक्सर पहुंच जाते हैं। उसको हम जिद्द नहीं कहते, उसको हम हठयोग कहते हैं। उसको हम दृढ़ता कहते हैं, उसको हम संकल्प कहते हैं।
तनका अपने गुरु के पास था। वह ध्यान की साधना कर रहा है। महीनों बीत गए हैं। गुरु उसके पास गया। और उसने तनका को बैठे हुआ देखा-बुद्ध की मुद्रा में, आंखें बंद किए, पत्थर की तरह। उसके गुरु ने, एक ईंट पड़ी थी दरवाजे पर, उसको उठा कर पत्थर पर घिसना शुरू कर दिया। ईंट की करर-करर आवाज, दांत किसमिसाने लगे तनका के। आखिर उसने आंख खोली और उसने कहा, यह क्या कर रहे हैं? और अपने गुरु को देखा तो बहुत हैरान हुआ। उसने सोचा, कोई बच्चा, या कोई शैतान आकर आस-पास कुछ कर रहा है। उसका गुरु पत्थर घिस रहा है। तनका ने पूछा, आप यह क्या कर रहे हैं? उसके गुरु ने कहा कि इस ईंट को घिस-घिस कर मैं दर्पण बनाना चाहता हूं।
गुरु तनका को कहना चाहता था कि जैसे यह ईंट घिस-घिस कर दर्पण नहीं बन सकती, ऐसे ही तू यह जो बैठा है आंखें बंद किए, कितना ही बैठा रहे, इससे ध्यान नहीं मिल सकता।
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