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वर्तुलाकार अस्तित्व में यात्रा प्रतियात्रा भी है
इसलिए अरविंद उसमें से चाहें तो वह अर्थ निकाल सकते हैं, जो आइंस्टीन का है। आइंस्टीन के पहले वह अर्थ उसमें से नहीं निकाला जा सकता था। अब निकाला जा सकता है। अब जैसे वेद कहते हैं कि सूर्य के सात घोड़े हैं, अश्व। अब अश्व के संस्कृत में कई अर्थ होते हैं। उसका अर्थ किरण भी होता है; उसका अर्थ घोड़ा भी होता है। तो सूरज के सात घोड़े हैं। सूरज के रथ में चित्रकारों ने सात घोड़े जोते हैं। लेकिन हम चाहें तो अब कह सकते हैं कि नहीं, वे घोड़े नहीं हैं, सात रंग हैं; सूरज की किरण में सात रंग हैं। वह अभी फिजिक्स की नवीनतम खोज है। हम उसका दर्शन कर सकते हैं। कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि अश्व के दोनों ही अर्थ होते हैं, किरण भी और घोड़ा भी।
पुरानी सब भाषाएं काव्य-भाषाएं हैं। नई भाषाएं गद्य-भाषाएं हैं, ज्यादा ठोस हैं। इसलिए अगर संस्कृत में विज्ञान लिखना हो तो बड़ी मुश्किल बात है। और अगर एस्पैंटो में कविता लिखनी हो तो मुश्किल बात है। क्योंकि एस्.टो नवीनतम आदमी की बनाई हुई भाषा है। वह बिलकुल गणित जैसी है। उसमें जो कहा गया है, वही अर्थ होता है। जो कहा जाए, अगर वही अर्थ हो, तो कविता का जन्म मुश्किल है। जो कहा जाए, उससे बहुत अर्थ हो सके ज्यादा, तो ही कविता पैदा हो सकती है।
प्रेम में जब हम बोलते हैं, तो शब्द तरल होते हैं। इसलिए कभी आपने खयाल किया कि दो जवान व्यक्ति भी अगर प्रेम में पड़ जाएं तो फिर से बच्चों की भाषा बोलने लगते हैं, बेबी-लैंग्वेज शुरू हो जाती है। दो प्रेमी जो भाषा बोलते हैं आपस में, वह बच्चों जैसी बोलते हैं। बच्चों की भाषा ज्यादा तरल है। और प्रेम को तरल भाषा की जरूरत है। इसलिए प्रेमी अगर अपनी प्रेयसी को बेबी कहने लगता है तो कोई ऐसे अकारण नहीं। कारण है। वे दोनों बच्चे हो गए हैं।
लेकिन भाषा की एक तीसरी, शब्द की एक तीसरी अवस्था भी है, जहां गद्य-पद्य दोनों खो जाते हैं। वह है वायवीय अवस्था, जहां गैस बन जाता है शब्द। उसका नाम ही मौन है। मौन भी शब्द की ही अवस्था है।
ठोस बोला जा सकता है। जब आप किसी को क्रोध में बोलते हैं, तो शब्द ठोसतम होते हैं। गाली वजनी होती है, उसमें वजन होता है, वेट होता है। इसलिए हम कहते हैं कि बड़ी वजनी गाली दी। ठोस होती है। इसलिए छिद जाती है, पत्थर की तरह चोट करती है। प्रेम में बोले गए शब्द तरल होते हैं। उनकी चोट पत्थर की तरह नहीं होती है, उनकी चोट ऐसी होती है, जैसे ऊपर फूल की वर्षा हो जाए।
मौन शब्द की तीसरी अवस्था है, जहां शब्द भाप बन जाते हैं, कोहरे में खो जाते हैं। . तो लाओत्से कहता है, वह जो कोहस था, मौन था; पृथक, एकाकी खड़ा। कोई दूसरा न था, अकेला था। अपरिवर्तित, कोई परिवर्तन न था; नित्य, निरंतर घूमता हुआ; सभी चीजों की जननी बनने योग्य!
इस फर्क को थोड़ा खयाल में लेंगे।
जो लोग मानते हैं ईश्वर ने जगत को बनाया, वे हमेशा गॉड दि फादर, ईश्वर पिता है, इस भाषा में सोचेंगे। लेकिन लाओत्से कहता है, मां! पिता नहीं। वह जो कोहरा था, सारे जगत की जननी बनने योग्य, मां बनने योग्य!
ईश्वर को पिता की तरह सोचना कई बातों की तरफ सूचना देता है। पहली बात, पिता का बच्चे के जन्म में न के बराबर संबंध होता है न के बराबर। पिता बच्चे को जन्म दूर से देता है, अपने भीतर से नहीं। बच्चे के विकास, उसकी ग्रोथ, उसके निर्माण में उसका कोई हाथ नहीं होता। प्रारंभ में उसका हाथ होता है। जैसे आपके कार में बैटरी है स्टार्टर, बस वह स्टार्टर भर है। और जैसे ही इंजन शुरू हो गया, उसका कोई उपयोग नहीं है।
तो अगर ईश्वर पिता है तो जगत को बना कर वह दूर हट जाएगा। लेकिन ईश्वर अगर मां है तो जगत उसका गर्भ है। अगर ईश्वर पिता है तो बनाना एक कृत्य है-एटामिक, आणविक। लेकिन अगर ईश्वर मां है तो सृजन एक शाश्वतता है-इटरनल।
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