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वर्तुलाकार अस्तित्व में यात्रा प्रतियात्रा भी है
धर्म की सारी खोज, वह जो परम नियम है-प्रकृति का ही नहीं, मनुष्य की चेतना के अंतसतम का भी-उसकी खोज है; उसके अनुकूल चलने की। उसका नाम है ऋत, उसका नाम है ताओ। उसके जो प्रतिकूल चलता है, वह दुख पाता है। इसलिए जब भी आप दुख पाएं, न तो किसी ईश्वर को दोषी ठहराना, न किसी और को दोषी ठहराना; क्योंकि वे सब भ्रांतियां हैं। तब एक ही बात समझना। न अपने को ही दोषी ठहराना। क्योंकि खुद को दोषी ठहरा लेने से भी कुछ हल नहीं होता। कुछ लोग तो खुद को दोषी ठहराने में भी मजा लेने लगते हैं। कुछ लोगों को खुद के अपराधी होने की चर्चा करने में भी आनंद होने लगता है। किसी को दोषी मत ठहराना।
इसलिए हमने इस मुल्क में ठीक उस तरह नहीं सोचा है, जैसे ईसाइयत ने सोचा है। ईसाइयत बोलती है जो भाषा, उसमें पाप, अपराध बड़े महत्वपूर्ण हैं। ईसाइयत कहती है कि तुम जो गलती कर रहे हो, वह तुम्हारा पाप है। हिंदू चिंतन कहता है, वह तुम्हारा अज्ञान है, पाप नहीं। यह बड़े मजे का फर्क है, और गहरा फर्क है। हिंदू चिंतन कहता है, वह अज्ञान है, पाप नहीं। क्योंकि पाप में तो अपराध का भाव हो जाता है। अज्ञान का केवल इतना ही मतलब है कि तुम्हें पता नहीं कि तुम क्या कर रहे हो, इसलिए दुख पा रहे हो। पाप का तो मतलब है, तुम्हें पता है कि तुम क्या कर रहे हो और फिर भी तुम कर रहे हो। पापी ज्ञानी हो सकता है। अज्ञानी को पापी कहना ठीक नहीं है। अज्ञान में क्या पाप है? उसे पता ही नहीं। मुझे पता नहीं है रास्ता कौन सा है और मैं भटक जाता हूं, तो मैं पापी नहीं हूं, कोई अपराध नहीं कर रहा हूं। कोई उपाय ही नहीं है, मैं भटकूँगा ही। पापी तो मैं उसी दिन होता हूं, जिस दिन मुझे पता था कि रास्ता क्या है, और मैं जान कर हटा।
लेकिन हिंदू चिंतन कहता है, जान कर दुनिया में कोई पाप नहीं कर सकता। जान कर आदमी वैसे ही पाप नहीं कर सकता, जैसे कि आग में जान कर कोई हाथ नहीं डाल सकता। छोटा बच्चा डाल देता है, क्योंकि उसे पता नहीं है। लेकिन छोटा बच्चा पापी नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि पापी नहीं है तो आग में हाथ डाल देगा तो आग जलाएगी नहीं। इसका यह मतलब भी नहीं है कि आग में हाथ डालेंगे आप अज्ञान में तो कष्ट न पाएंगे। कष्ट तो पाएंगे ही। लेकिन वह कष्ट अज्ञान का कष्ट है।
इसलिए जब आपके जीवन में दुख हो तो न तो ईश्वर को दोषी ठहराना, न भाग्य को, न दूसरों को, न अपने को; सिर्फ इतना ही समझना कि नियम के कहीं प्रतिकूल चले गए हैं। नियम को भी दोषी ठहराने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि नियम आपसे कहता नहीं कि प्रतिकूल चले जाएं। और अपने को भी दोषी ठहराने का कोई कारण नहीं है; क्योंकि पता नहीं है, इसलिए प्रतिकूल चले गए हैं।
लेकिन हम दोषी ठहरा कर बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं; मूल बात चूक जाती है। मूल बात इतनी है कि नियम से जितनी प्रतिकूलता होती है, उतना सघन दुख हो जाता है-उसी मात्रा में। अगर दुख बढ़ता ही चला जाए तो आप समझना कि आप नियम के प्रतिकूल चले ही जा रहे हैं, दूर हटते जा रहे हैं नियम से। जब कभी जीवन में आपको सुख की झलक मिले तो यह मत सोचना कि परमात्मा की कृपा है; यह भी मत सोचना कि आप बड़े पुण्यशाली हैं; इतना ही सोचना कि आप जाने-अनजाने नियम के करीब, अनुकूल पड़ गए हैं। सुख की जो हलकी हवा आ गई है, एक झोंका सुख का आकर आपको घेर गया है...।
इसलिए एक बड़ी मजे की घटना घटती है कि जब भी आदमी को पता चलता है कि वह सुख में है, तभी दुख शुरू हो जाता है। जैसे ही उसे पता चलता है कि सब सुख में है, वैसे ही दुख शुरू हो जाता है। क्यों हो जाता है?
जैसे ही उसे पता चलता है कि सुख में है, वह यह नहीं समझ पाता कि नियम के करीब है और खोज करे कि कहां से नियम के करीब है; वह सोचने लगता है कि मैं बड़ा सौभाग्यशाली हूं, मुझसे सौभाग्यशाली और कोई भी नहीं। वह कुछ गलत दिशा में यात्रा शुरू हो गई। वह सोचता है, मैं बहुत बुद्धिमान हूं, इसलिए यह सुख मुझे मिल
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