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ताओ उपनिषद भाग ३
नहीं होगा, वह आपकी धारणा के मुसलमान से होगा। आप असहज हो गए। सहजता समाप्त हो गई। सहजता का अर्थ तो था कि इस आदमी से संबंध होता। अब आप इससे बात भी नहीं करेंगे। बात भी करेंगे तो आपके मुसलमान से बात होगी, जो आपकी धारणा है।
हमारी जानकारी सब जगह हमें असहज बना देती है। सहज का अर्थ होता है : क्षण में जो सत्य है, वहां उसके साथ व्यवहार। लेकिन जानकारी व्याख्या बन जाती है। फिर हमारा व्याख्या के साथ व्यवहार होता है।
हम शब्दों में जीते हैं।
मैं एक घर में मेहमान होता था। पड़ोस में एक चर्च था। चर्च बहुत सुंदर था। तो जब भी मैं वहां मेहमान होता था, सुबह उठ कर चर्च में चला जाता। सन्नाटा होता, रविवार को छोड़ कर वहां कोई आता भी नहीं था। मित्र को पता चला, जिनके घर मैं ठहरता था, वे भागे हुए मेरे पीछे आए एक दिन और कहा कि आप, आपको मुझे कहना था, मंदिर ले चलता। चर्च में जाने की क्या जरूरत थी? और मंदिर फिर ज्यादा दूर भी नहीं है। मैं उनसे कुछ बोला नहीं।
दस वर्ष बाद उसी घर में फिर मेहमान था। वह चर्च बिक गया और जिन मित्र के घर मैं ठहरता था, उनके संप्रदाय ने ही उस चर्च की जायदाद खरीद ली थी। मकान वही था, दरख्त वही थे, पक्षी वही थे, सन्नाटा वही था; सिर्फ तख्ती बदल गई थी। अब वह चर्च नहीं था। सुबह ही उठ कर उन्होंने मुझसे कहा-वे तो भूल भी चुके थे कि दस साल पहले उसी मकान से मुझे बाहर निकाल लाए थे—उन्होंने मुझसे कहा, आपको बड़ी खुशी होगी, पड़ोस की जमीन हमने खरीद ली है और अब वहां सिर्फ मूर्ति की स्थापना होने की देर है। मंदिर बन गया है, आप अंदर आइए।
सब वही है; सिर्फ तख्ती बदल गई है। तब वह चर्च था, तब मेरा जाना उन्हें गुनाह मालूम पड़ा था। अब वह मंदिर है, अब मैं न जाऊं तो उन्हें गुनाह मालूम पड़ेगा।
हमारा व्यवहार यथार्थ से नहीं है; शब्दों से है, जानकारियों से है। एक क्षण में, शब्द बदल जाए, हमारा व्यवहार बदल जाता है। लेबल कोई बदल दे, भीतर जो वस्तु थी, वही है। बस ऊपर की तख्ती कोई बदल दे, सब बदल जाता है। इससे जटिलता खड़ी होगी। और हमारा जीवन इस जटिलता का ही परिणाम है। और यह जटिलता न . केवल ऐसे ऊपरी जगत में दिखाई पड़ेगी, यह जटिलता भीतर भी प्रवेश कर जाएगी-भीतर भी। फिर हम व्यक्तियों को, उनकी अनुभूतियों को, उनके प्राणों को नहीं देख पाते।
एक आदमी आपसे कह रहा है कि मुझे आपसे बहुत प्रेम है। आप फिर उसकी आंखों में नहीं देख पाते, न फिर उसके चेहरे में झांक पाते, न उसकी आत्मा में उतर पाते। बस, ये शब्द ही आपके हाथ में पड़ते हैं कि मुझे बहुत प्रेम है। इन शब्दों के आधार पर ही फिर आप सब कुछ निर्णय करते हैं। वे निर्णय फिर आपको दुख में ले जाते हैं। एक आदमी आप पर नाराज हो रहा है, बुरा-भला कह रहा है। शब्द ही आप पकड़ लेते हैं; उस आदमी की आंखों में नहीं झांकते। कभी ऐसा भी होता है कि नाराजगी प्रेम होती है। और कभी ऐसा भी होता है कि प्रेम सिर्फ एक धोखा होता है। लेकिन शब्द, जानकारी बड़ी महत्वपूर्ण हो जाती है। फिर हम शब्दों के आसपास ही अपने जीवन का सारा भवन निर्मित करते हैं। वह भवन ताश के पत्तों का भवन है। उसमें रोज दरार पड़ेगी, रोज दुर्घटना होगी, रोज मकान गिरेगा। जरा सा हवा का झोंका आएगा और सब गिर जाएगा। और तब हम यथार्थ को दोष देंगे और हम कहेंगे कि यथार्थ बड़ा कठोर है और जीवन बड़ा दुख है। न तो जीवन दुख है और न यथार्थ बड़ा कठोर है। आप यथार्थ को जानते ही नहीं। आप शब्दों के घरों में रहते हैं। आपने यथार्थ को कभी झांका ही नहीं। जो था, वह आपने देखा नहीं। आप अपनी व्याख्या में ही चल रहे हैं।
इन व्याख्याओं के इर्द-गिर्द फंसे हुए आदमी को लाओत्से कहता है जानकारी में, पांडित्य में उलझा हुआ आदमी। इसे छोड़ो तो विपत्तियां मिट जाती हैं, मुसीबतें समाप्त हो जाती हैं।