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ताओ उपनिषद भाग ३
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यह महायात्रा शुरू होती है अपने में श्रद्धा से । क्योंकि जो अपने में श्रद्धा करता है, वही एक दिन अपने निज स्वभाव के साथ एक होने की हिम्मत जुटा पाएगा।
हम अपने में श्रद्धा नहीं करते, और इसलिए हमने एक तरकीब निकाल ली है। अपने में श्रद्धा के अभाव को खटकने न देने के लिए हम दूसरों में श्रद्धा करते हैं। कोई महावीर में, कोई बुद्ध में, कोई कृष्ण में श्रद्धा करता है । कृष्ण में जो इसलिए श्रद्धा करता है कि अपने में तो कोई श्रद्धा है नहीं, चलो उनमें श्रद्धा रख कर शायद कोई रास्ता बन जाए, वह दूसरे सूत्र पर पहुंच जाएगा - आचरण का अनुगमन करेगा। जो इस कारण कि अपने में ही जब श्रद्धा नहीं है तो किसी पर श्रद्धा नहीं रखेगा, क्योंकि जब अपने में ही नहीं तो किसी पर क्या रखनी, वह नास्तिक हो जाएगा - वह तीसरे सूत्र पर पहुंच जाएगा। जिसकी अपने में श्रद्धा है, वह कृष्ण से भी सीख लेगा, लाओत्से से भी सीख लेगा। लेकिन अपनी श्रद्धा उसकी सघन होगी इस शिक्षण से । इस सत्संग से उसकी स्व की श्रद्धा बढ़ती जाएगी। वह अगर कृष्ण के चरणों में भी झुकता है तो सिर्फ इसीलिए कि कृष्ण उसके भविष्य के प्रतीक हैं; कल वह भी कृष्ण जैसा हो पाएगा। वह जो कल हो सकता है, उसके चरणों में झुक रहा है।
बुद्ध से कोई पूछता है कि लोग आपके चरणों में झुकते हैं, आप रोकते क्यों नहीं ?
बुद्ध कहते हैं, अगर वे मेरे चरणों में झुकें तो मैं उन्हें जरूर रोकता हूं। लेकिन वे अपने ही भविष्य के चरणों में झुकते हैं; मैं तो केवल बहाना हूं। मुझमें उन्हें अपना भविष्य दिखाई पड़ता है; कल वे भी बुद्ध हो सकते हैं। और इसीलिए झुकते हैं। इसलिए रोकने का कोई कारण नहीं है।
अपने में श्रद्धा अगर हो तो हम ताओ के साथ एकात्म हो सकते हैं। अपने में श्रद्धा न हो तो दो खतरे हैं - या तो हम दूसरे में श्रद्धा करके सब्स्टीट्यूट पा लेंगे, तब हम आचरण का अनुगमन करेंगे; या हम अपने में श्रद्धा नहीं है, इसलिए किसी में भी श्रद्धा नहीं करेंगे, तब हम ताओ के विपरीत चले जाएंगे।
ताओ हर हाल प्रसन्न है; आप हर हाल प्रसन्न नहीं हो सकेंगे। इसलिए अपने दुख को देखते रहना । जितना ज्यादा हो दुख आपका, समझना कि तीसरे सूत्र में पड़े हैं। दुख हो, बहुत ज्यादा न हो, संतोष के लायक हो, समझना कि दूसरे में पड़े हैं। दुख बिलकुल न हो, संतोष की भी जरूरत न हो, तो समझना कि पहले के निकट आ गए हैं।
आज इतना ही। पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें।