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ताओ उपनिषद भाग३
आप बिलकुल पालथी मार कर, आंख बंद करके, बुद्ध बन कर बैठ सकते हैं। कई साधु-संन्यासी फोटो उतरवाते वक्त बैठ जाते हैं बिलकुल बुद्ध बन कर, बुद्धवत। लेकिन बुद्धवत होना बुद्ध होना नहीं है; वह सिर्फ आवरण है, झूठा है। भीतर तूफान उबल रहा है, आंधियां चल रही हैं; भीतर सब उपद्रव मौजूद हैं। आचरण के सूत्र का खतरा यही है कि कोई ठीक से पालन करे तो भूल ही जाएगा कि जो मेरे हाथ में है, वह नकली प्रति है; वह वास्तविक नहीं है, वह केवल छाया है, प्रतिबिंब है। ___ 'और जो ताओ का परित्याग करता है...।'
मजे की बात तीसरी, आखिरी, कि जो स्वधर्म को बिलकुल ही छोड़ देता है, न स्वधर्म की दृष्टि से, न आचार की दृष्टि से, सब दृष्टियों से छोड़ देता है।
'जो ताओ का परित्याग करता है, वह भी परित्याग के साथ एकात्म हो जाता है।' _ लाओत्से का यह सूत्र बहुत गहरा है। वह कहता है, यह प्रकृति इतनी उदार है कि अगर तुम इसके विपरीत भी चले जाते हो तो भी तुम्हें बाधा नहीं देती है। अगर तुम परमात्मा की तरफ पीठ भी कर लेते हो तो परमात्मा उसमें भी तुम्हारी सहायता करता है।
साधारण धार्मिक आदमी को लगेगा, यह तो बात ठीक नहीं है। परमात्मा को रोकना चाहिए कि तुम क्यों गलत जा रहे हो? बाप, अगर बेटा गलत जाने लगे, रोकता है। अगर परमात्मा के मन में दया है तो उसे कहना चाहिए कि पीठ मत करो मेरी तरफ, लौटो! किसी का आचरण खोने लगे तो आचरण पर लाना चाहिए।
लाओत्से की दृष्टि, स्वभाव और परमात्मा की तरफ, हम से बहुत गहन है। हमारी तो उपयोगिता की दृष्टि है। लाओत्से कहता है, ताओ है परम स्वतंत्रता। इसलिए अगर तुम उसके विपरीत भी जाओ तो तुम उसी के साथ एकात्म हो जाओगे।
तो जो आदमी कहता है ईश्वर नहीं है, ईश्वर उसे भी बाधा नहीं देगा। वह आदमी नास्तिकता से एकात्म हो जाएगा। बड़ी खतरनाक बात है। बड़ी महान, बड़ी खतरनाक, बड़े दायित्व की! क्योंकि इतनी परम स्वतंत्रता का हम' दुरुपयोग कर रहे हैं। जो आदमी कहता है, मैं ईश्वर को नहीं मानता और जब तक ईश्वर मुझे मिल न जाए, तब तक मैं मानूंगा नहीं, वह आदमी जन्मों-जन्मों तक भी ईश्वर से न मिल पाएगा। क्योंकि ईश्वर से मिलने का जो द्वार था, उसकी तरफ वह पीठ करके पहले से खड़ा हो गया। और ईश्वर इतनी भी बाधा नहीं देता कि जबरदस्ती करे और सामने आकर खड़ा हो जाए। अस्तित्व इतना उदार है, इतना परम उदार है कि तुम जो भी होना चाहो, हो सकते हो। तुम अस्तित्व के विपरीत जाना चाहो, विपरीत जा सकते हो। तो भी कोई बाधा नहीं होगी।
अगर बुराई की स्वतंत्रता न हो तो भलाई फिर एक मजबूरी हो जाएगी। और अगर नरक जाने की स्वतंत्रता न हो तो स्वर्ग जाना एक जबरदस्ती हो जाएगी। और नरक के द्वार पर अगर बहुत मुश्किल पड़ती हो, भीतर न घुसने दिया जाता हो, तो स्वर्ग के द्वार पर प्रवेश करने में मन बड़ी ग्लानि अनुभव करेगा। क्योंकि जबरदस्ती मिला हुआ स्वर्ग भी नरक जैसा हो जाता है। और अपनी मौज से जो नरक को चुनता है, तो वह नरक भी स्वर्ग हो जाता है। असल में स्वतंत्रता ही स्वर्ग है।
तो लाओत्से कहता है कि जो ताओ का परित्याग करता है, वह ताओ के अभाव से एकात्म हो जाता है। इससे भी बड़ी मजे की बात आगे है।
कहता है, 'जो ताओ से एकात्म है, ताओ उसका स्वागत करने में प्रसन्न है। जो नीति से एकात्म है, नीति उसका स्वागत करने में प्रसन्न है। जो ताओ के परित्याग से एक हो गया, ताओ का अभाव भी उसका स्वागत करने में प्रसन्न है।'