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ताओ उपनिषद भाग ३
है। और भी लोग हैं, तुम फलां आदमी से जाकर मिलो, वह इससे भी ज्यादा गंदी बात मेरे बाबत कहता है। और अगर तुम्हारी तृप्ति उससे भी न हो तो मैं तुम्हें और भी आदमी बताऊंगा जो और भी...यह कुछ भी नहीं है। जब पहली दफा ऑसस्की गुरजिएफ को मिला तो वह बहुत चकित हुआ इस तरह की बात देख कर। जब भी कोई आकर उसकी निंदा की बात करता तो वह कहता, यह कुछ भी नहीं है।
जिस आदमी के भीतर कोई घाव नहीं है, आप उसकी कितनी ही बुराई करके उसको चोट नहीं पहुंचा सकते। चोट आपकी बुराई से नहीं पहुंचती, भीतर के घाव से पहुंचती है। कोई आदमी आपसे आकर कह देता है कि फलां आदमी कहता था आप चरित्रहीन हैं। आपको जो चोट पहुंचती है, वह उस आदमी से नहीं पहुंचती। जानते तो आप भी हैं कि चरित्रहीन हैं, अब फजीहत हुई, अब फजीहत हुई, औरों को भी पता चलने लगा। तो अब औचित्य सिद्ध करने में लगते हैं कि नहीं हैं, कौन कहता है? मैं चरित्रवान हूं। सिवाय चरित्रहीनों के चरित्रों की औचित्य सिद्ध करने की चेष्टा किसी ने कभी नहीं की है।
संत अपना औचित्य सिद्ध नहीं करते; लेकिन उनकी ख्याति दूर-दिगंत तक पहुंच जाती है। यह पहुंच जाना सहज घटना है। यह अनायोजित, अचेष्टित है। न इसकी कोई कामना है, न इसकी कोई आकांक्षा है। अन-अभीप्सित है। लेकिन यह घटती है। और जब घटती है, तो इस सुगंध को रोकना बहुत मुश्किल है। क्योंकि इसको कभी गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता। जो सही सिद्ध करने की चेष्टा में नहीं है, उसे हम गलत सिद्ध नहीं कर सकते।
'वे अपनी श्रेष्ठता का दावा नहीं करते, इसलिए लोग उन्हें श्रेय देते हैं।'
उनका एक ही श्रेय है कि वे श्रेष्ठता का दावा नहीं करते। श्रेष्ठता का दावा सिर्फ हीनजन ही करते हैं; श्रेष्ठजन नहीं करते। जो श्रेष्ठ है ही, वह दावा क्यों करेगा? जो श्रेष्ठ नहीं है, उसी के भीतर दावा पैदा होता है।
'वे अभिमानी नहीं हैं, और इसलिए लोगों के बीच अग्रणी बने रहते हैं।'
आगे बने रहते हैं; क्योंकि आगे बने होने की उनकी कोई आकांक्षा नहीं है। पीछे खड़े होने की उनकी पूरी तैयारी है। पीछे ही वे खड़े होते हैं।
इसको हम थोड़ा समझ लें। दो तरह से लोग आगे खड़े होते हैं इस जगत में। एक तो वे जो क्यू में धक्कमधेल करके आगे पहुंचते हैं। राजनीतिज्ञ हैं, काफी धक्कमधक्का करके वे आगे पहुंचते हैं। आगे पहुंचने में बड़ी उनकी फजीहत होती है; लेकिन वे सब झेल लेते हैं। आगे पहुंचने का लोभ इतना है कि कितनी भी फजीहत झेली जा सकती है। और एक दफे आदमी आगे पहुंच जाए तो लोग भूल जाते हैं कि इनकी बड़ी फजीहत हुई थी। इसलिए बीच के धक्कमधक्का खा लेने में कोई हर्ज नहीं है। एक दफा आगे पहुंच गए तो सब इतिहास बदल जाता है। सफल आदमी की सब असफलताएं भूल जाती हैं। आगे पहुंच गए आदमी की बात ही भूल ही जाती है कि कभी वह पीछे क्यू में खड़ा था।
और बड़ा मजा यह है कि जिस तरह धक्कमधक्का देकर वह आगे आया है, वह लोगों को समझाने लगता है: क्यू में लाइन लगा कर खड़े रहो, धक्कमधुक्की करनी ठीक नहीं है। इंदिरा गांधी को पूछे, निजलिंगप्पा जो उनको समझाते थे, वह अब दूसरों को समझाना शुरू कर दी है। यह बड़ी आश्चर्य की बात है। लेकिन आदमी का मन ऐसा है। और सब आदमियों का मन ऐसा है।
आप ट्रेन के डिब्बे में बैठे हैं। चिल्लाते हैं दरवाजे से, किसी को घुसने नहीं देते हैं कि बिलकुल भरा है, एक इंच जगह नहीं है, आगे जाओ! और आप भूल गए कि अगले स्टेशन पर आप बाहर खड़े थे और तब जो दलीलें आप दे रहे थे, वही दलीलें बाहर खड़ा आदमी दे रहा है कि बिलकुल मत घबड़ाइए, मैं पांव पर ही खड़ा रहूंगा, पैर के लायक जगह मिल जाएगी, आप चिंता मत करिए, तकलीफ मैं झेल लूंगा। आप कहते हैं, है ही नहीं जगह।
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