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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ 92 एक साधु छोड़ना चाहते थे साधु-वेश। उन्होंने मुझे पत्र लिखा। तो मैंने कहा, छोड़ दो, इसमें पूछना क्या है ? यह भी पूछ कर छोड़ोगे? पूछ कर पहले फंसे कि लिया, अब भी पूछ कर छोड़ोगे ? छोड़ दो छोड़ना है तो । इसमें क्या बुराई है ? उन्होंने मुझे पत्र लिखा कि आप समझे नहीं। मैट्रिक फेल हूं। और अभी-अभी वाइस चांसलर भी मेरे पैर छूते हैं आकर । कल मुझे क्लर्क की भी नौकरी नहीं मिल सकती है। इसलिए पूछता हूं कि छोडूं कि न छोडूं ? तो मैंने कहा कि तुम गलत सवाल पूछे। तुम्हें यह पूछना ही नहीं था कि साधुता छोड़ दूं । साधुता है ही नहीं । तुम एक व्यवसाय में हो। और अच्छा व्यवसाय है, तुम जारी रखो। क्योंकि इससे साधुता का कोई संबंध नहीं है। तुम्हें ठीक धंधा मिल गया है, उसे तुम जारी रखो। लेकिन धंधे को साधुता मत कहो । साधु होना सबसे सस्ती, बिना किसी योग्यता के घटने वाली घटना है। तो आसान है। सौ में निन्यानबे साधु इसीलिए साधु हैं कि साधुता से कुछ और मिलता है, जो उन्हें अन्यथा नहीं मिल सकेगा। लेकिन सम्मान की आधारशिलाएं हट जाएं, आपके साधु एकदम तिरोहित हो जाएंगे। तब शायद वही साधु रह जाएगा बाकी, जिसके लिए सम्मान से कोई प्रयोजन न था । जो प्रकट ही न होना चाहता था, या प्रकट भी हो गया था तो उसकी कोई वासना थी, दुर्घटना थी। P अपना औचित्य ! अपना औचित्य हम तभी सिद्ध करते हैं, जब हमें लगता है कि जिनके सामने हम सिद्ध कर रहे हैं, वे हमारे न्यायाधीश हैं। नीत्शे से किसी ने कहा कि तुम जीसस के इतने खिलाफ लिखे हो — और नीत्शे न केवल लिखता था जीसस के विरोध में, दस्तखत भी करता था तो लिखता था एंटी- क्राइस्ट फ्रेडरिक नीत्शे, जीसस - विरोधी - तो तुम इस सबके लिए प्रमाण दो। तो नीत्शे ने कहा कि जिस अदालत में जीसस की प्रामाणिकता जांची जाएगी, उसी अदालत में हम भी प्रमाण दे देंगे। अगर कहीं कोई परमात्मा है जो सिद्ध करेगा कि जीसस ईश्वर के पुत्र हैं तो उसी के सामने हम भी सिद्ध कर देंगे। लेकिन तुम्हारे सामने नहीं, क्योंकि तुम न्यायाधीश नहीं हो। तुम कौन हो ? तुमसे क्या लेना-देना है ? और नीत्शे तो कोई संत नहीं है। लेकिन संतत्व के बड़े करीब है। नीत्शे ने जो किताबें लिखी हैं, वे सुसंबद्ध नहीं हैं, सिस्टमैटिक नहीं हैं, फ्रैगमेंट्स हैं, टुकड़े हैं। उनके बीच कोई सिलसिला नहीं है। कई बार लोगों ने उसे कहा कि तुम कुछ सिलसिला बनाओ। उसने कहा कि तुम कौन हो ? विचार मेरे हैं, जिम्मेवार मैं हूं। जिनके पास आंखें हैं, वे सिलसिला देख लेंगे। और जिनके पास आंखें नहीं हैं, उनको सिलसिला बताने की जरूरत भी क्या है ? नीत्शे ने कहा है कि लोगों ने एक-एक किताब लिखी है जितने विचार से, उतने विचार से मैंने एक-एक वाक्य लिखा है। लेकिन वह बीज है। पर कोई न्यायाधीश नहीं है; उत्तरदायित्व नहीं है किसी के प्रति । असल में, संत का वक्तव्य यह है कि मैं जैसा हूं, वह मेरे और परमात्मा के बीच की बात है; किसी और से उसका कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन हम मान नहीं सकते बीच में बिना कूदे। हम एक-दूसरे की खिड़कियों से झांकने के ऐसे आदी हो गए हैं— पीपिंग टाम्स ! किसी का चाबी का छेद है, उसी में से झांक रहे हैं। हम सब को दूसरों में झांकने की ऐसी वृत्ति हो गई है ! और दूसरे भी इतने कमजोर हैं कि वे अपना औचित्य सिद्ध करने लगते हैं कि मैं ठीक हूं; ऐसा कर रहा था उसका कारण यह था; ऐसा कहा, उसका कारण यह था । दूसरे भी कारण बताते हैं, दूसरे भी कमजोर हैं। लेकिन संत कमजोर नहीं है। वह अपने में पूरी तरह निर्भर है। अपने में पूरा का पूरा ठहरा हुआ है। कोई प्रमाण की जरूरत नहीं है। किसी को कुछ समझाने की कोई औचित्य की, कोई तर्क की, कोई गवाही की जरूरत नहीं है। और लाओत्से कहता है, 'इसीलिए उनकी ख्याति दूर - दिगंत तक जाती है।'
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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