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ताओ उपनिषद भाग ३
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और जो आदमी कसम खाने से झूठ बोलना छोड़ देता हो, उसने बहुत पहले कभी ही झूठ बोलना छोड़ दिया होता। मगर बचकाना काम अदालतें भी किए चली जाती हैं। एक कहीं से शुरुआत होनी चाहिए; कहीं से हम मान कर चलें कि तुम सच बोल रहे हो । कसम कैसे तय कर सकती है कि कौन आदमी सच बोल रहा है?
मजा यह है, लेकिन जो झूठ बोलता है, वह जोर से कसम खाएगा; सच बोलने वाला शायद थोड़ा झिझके भी कि कसम खानी कि नहीं खानी । सच बोलने वाला ही झिझकेगा कि कसम खानी कि नहीं खानी; झूठ बोलने वाला बेझिझक खाएगा। क्योंकि जिसे झूठ ही बोलना है, कसम क्या अड़चन पैदा करेगी? सच बोलने वाले को कसम अड़चन पैदा कर सकती है। वह सोच सकता है कि कसम खाने का मतलब सच बोलना है। लेकिन झूठ बोलने वाला तेजी से खाएगा।
बड रसेल ने लिखा है कि इस जगत में जो लोग अपना औचित्य जितनी तेजी से सिद्ध करने में लगे रहते हैं, प्रमाण देते हैं कि वे आदमी उचित नहीं हैं। उनकी सिद्ध करने की चेष्टा ही कहती है कि उनको खुद भी शक है, खुद भी भीतर संदेह है। उस संदेह को झुठलाने के लिए वे सब तरह के उपाय करते हैं।
इसलिए एक बड़े मजे की बात है कि इस जगत में जो श्रेष्ठतम जन हुए हैं, उन्होंने जो भी कहा है, उसके लिए कोई प्रमाण नहीं दिए हैं। वे सीधे वक्तव्य हैं, स्टेटमेंट्स हैं, उनका कोई प्रमाण नहीं है। बुद्ध कहते हैं कि मुझे ऐसा - ऐसा हुआ। अगर कोई पूछता है, प्रमाण ? तो वे कहते हैं, तुम भी ऐसा ऐसा करो और तुम्हें हो जाएगा। तुम्हारा करना ही तुम्हारे लिए प्रमाण बनेगा। और मैं अगर चार गवाह खड़े करूं, कि देखो, ये भी कहते हैं कि मुझे हुआ तो एक इनफिनिट रिग्रेस शुरू होती है, एक अंतहीन सिलसिला शुरू होता है। क्योंकि मजा यह है कि मैं एक गवाह खड़ा करता हूं और आश्चर्य तो यह है कि हम यह भी नहीं पूछते कि यह जो गवाह बोल रहा है, इसके गवाह कहां हैं जो कहें कि यह ठीक बोल रहा है। यह गवाहों का सिलसिला कहां अंत होगा ?
ऋषियों ने एक बात कही है, उन्होंने कहा है कि सत्य जो है, वह सेल्फ एवीडेंट है, स्वतः प्रमाण है। झूठ सेल्फ एवीडेंट नहीं है, झूठ स्वतः प्रमाण नहीं है। इसलिए झूठ हमेशा गवाह साथ लेकर आता है। सत्य खुद ही अपना गवाह है, और कोई गवाही नहीं है। झूठ पहले से ही इंतजाम करके चलता है, पच्चीस गवाह लेकर आता है।
मुल्ला नसरुद्दीन पर मुकदमा चला। उसने किसी की हत्या कर दी है। और अदालत में दस गवाहों ने बयान दिया कि हमारे सामने यह हत्या हुई है। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, इसमें क्या रखा है। मैं सौ गवाह खड़े कर सकता हूं जो कहने को राजी हैं कि उनके सामने हत्या नहीं हुई। दस से क्या होता है ? सौ गवाह खड़े कर सकता हूं! जब यह हत्या हुई, जिस आदमी की हत्या हुई, नसरुद्दीन कहता है, मैंने नहीं की, किसी और ने की होगी; मैं मौजूद जरूर था । तो अदालत में वकील उससे पूछता है कि तुम कितने दूर खड़े थे इस आदमी से जब यह आदमी मरा? तो उसने कहा कि मैं तेरह फीट सात इंच दूर खड़ा था। मजिस्ट्रेट भी चौंका। उसने कहा, हैरानी की बात है, तुम पहले ही आदमी हो ! तेरह फीट सात इंच, यह तुम्हें कैसे पता चला? नसरुद्दीन ने कहा, मैंने पहले ही सब सोच लिया था, कोई न कोई मूर्ख अदालत में जरूर पूछेगा। मैं सब नाप-जोख करके ही काम किया हूं।
वह जो आदमी गलत है, वह गलती करने के पहले गवाह खोज लेता है। जो आदमी सही है, उसे तो बाद में ही पता चलता है कि सही के लिए भी गवाह देने होते हैं।
लाओत्से कहता है, संत अपना औचित्य सिद्ध नहीं करते। वे क्या हैं, इसके लिए उनके पास कोई गवाही नहीं। उनका क्या अनुभव है, इसके लिए उनके पास कोई प्रमाण नहीं। प्रमाण देने की कोई इच्छा भी नहीं। कोई जस्टीफिकेशन नहीं है। संत बिलकुल अनजस्टीफाइड खड़े होते हैं, बिना किसी औचित्य की चिंता के खड़े होते हैं। जिनको दिखाई पड़ सकता हो, वे सीधा देख लें; और जिनको दिखाई न पड़ सकता हो, वे न देखें, अंधे बने रहें ।