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ताओ की अनुपस्थित उपस्थिति
खड़ी की है। इस पुजारी को तो पकड़ लाए हैं, पागल को। अठारह रुपए महीने की कुल जमा इसकी हैसियत है। लाखों का वह मंदिर है, बनाने वाले वे हैं। और यह पुजारी उनसे कह रहा है कि बिना चखे मैं मां को चढ़ा नहीं सकता, क्योंकि पता नहीं, भोजन करने योग्य बना हो, न बना हो। तो नौकरी छोड़ने को राजी हूं; लेकिन भोजन तो पहले चलूँगा, फिर भोग लगाऊंगा। फूल पहले सूचूंगा, फिर चढ़ाऊंगा। अगर सुगंध ही नहीं है, तो चढ़ाने से फायदा क्या है? ट्रस्टी लोग एक-दूसरे की तरफ देखते हैं, यह आदमी क्या कह रहा है? पागल हो गया है? मंदिर हमने बनवाया, वह मूर्ति हमने खड़ी की। कहां की मां है! कहां का क्या है! सब हमारा खेल है, नाटक है। पुजारी पागल है। भरोसा हमें कभी आता नहीं इन लोगों का। लेकिन रामकृष्ण की आंख में देखते हैं, तो मानना भी पड़ता है कि शायद ठीक ही कहता होगा, शायद इसको दिखाई पड़ता हो। शक तो पूरा है।
ये व्यक्ति अकेले हैं। और इनके अकेले होने का सबसे बड़ा कारण परमात्मा की यह रहस्यमयी विशेषता है कि वह है और अनुपस्थित, एज इफ ही इज़ नाट। ही इज़, एज इफ ही इज़ नाट। पूरी तरह है, पर यह एज इफ, यही उसका रहस्य है कि बिलकुल गैर-मौजूद है। इसलिए जो गैर-मौजूदगी में देखने की कला खोज लेते हैं, वे ही उसे देख पाते हैं। जो बिना आंखों के देखने की कला खोज लेते हैं, वे उसे देख पाते हैं। जो बिना हाथों के उसके आलिंगन
में उतर जाते हैं, वे उसके आलिंगन में उतर पाते हैं। यह रहस्यमयी विशेषता न तो नास्तिक मानते हैं, न आस्तिक - मानते हैं। इसको समझ लें।
नास्तिक तो कहता है : छोड़ो, बकवास है। जो नहीं है, वह नहीं है। इतना उलटा घूम कर कान को पकड़ने की जरूरत क्या है? सीधा पकड़ लें; नहीं है, नहीं है; है, है। नास्तिक का तर्क सीधा-साफ है, गणित को मानता है, व्यवस्थित है। वह कहता है कान को पकड़ते हैं सीधा, इतना उलटा जाने की क्या जरूरत है कि एज इफ ही इज़ नाट। कहो सीधा, ही इज़ नाट। बात खतम हो गई। यह एज इफ का इतना लंबा चक्कर क्या? जैसे कि! जैसे कि क्या जरूरत है जोड़ने की? नहीं है, तो नहीं है। है, तो है। नास्तिक भी कहता है कि अगर है, तो प्रकट होना चाहिए है के रूप में। तो हम स्वीकार कर लें।
आस्तिक को भी यही दिक्कत है। आस्तिक भी मुश्किल में पड़ता है। उसको भी, एज इफ उसको भी पकड़ में नहीं आता कि जैसे नहीं है ऐसा है। तो फिर वह तरकीबें खोजता है। उसकी तरकीबें जाहिर हैं। उसकी एक तरकीब तो यह है कि वह प्रतीक बनाता है। इसी को प्रकट करने के लिए, इस रहस्यमयी विशेषता को समाप्त करने के लिए, तर्क सीधा करने के लिए वह प्रतीक बनाता है। एक मूर्ति खड़ी करता है। परमात्मा की बात छोड़ता है, मूर्ति के चरण पकड़ता है। अब मूर्ति कम से कम है। और तब वह कहता है कि अब कुछ है जो हाथ में आता है। कुछ हाथ में आता है। तब किसी राम को, तब किसी बुद्ध को, तब किसी कृष्ण को, उनके चरण पकड़ता है। और कहता है कि छोड़ो, वह रहस्यमयी होगा, वह परम ब्रह्म होगा, जो होगा; तुम हो, और तुम भी काफी हो। मगर यह भी तर्क नास्तिक का ही है। नास्तिक की ही बात है यह भी। नास्तिक से वह जीत नहीं पाता, तो वह कहता है, नहीं होगा परमात्मा, राम तो हैं! राम परमात्मा हैं। कृष्ण तो हैं, कृष्ण परमात्मा हैं।
फिर वह राम और कृष्ण के आस-पास चमत्कारों की कथाएं इकट्ठी करता है। क्योंकि वह नास्तिक कहता है कि अगर राम के पैर में भी कांटा गड़ता है और खून निकलता है, तो हममें और राम में फर्क क्या है? अगर महावीर के भी पैर में कांटा गड़ता है और खून निकलता है, तो महावीर और हममें फर्क क्या है? और अगर गर्दन काटो, और महावीर भी मर जाएं और हम भी मर जाएं, तो कैसे परमात्मा हैं?
तो फिर इस आस्तिक को इनके आस-पास चमत्कार जोड़ने पड़ते हैं। फिर आस्तिक को कहना पड़ता है कि नहीं, तुम काटो महावीर को, तलवार कट जाए, महावीर नहीं कटते। जीसस को मारो, तुम समझ रहे हो कि मार
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