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ताओ उपनिषद भाग २
तो परमात्मा नियंता नहीं है, निर्माता है। इससे हमें थोड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि हमारा मन यह करता है कि वह नियंता भी हो तो अच्छा। तो हमारे ऊपर जो जिम्मेवारी है, जो उत्तरदायित्व है, जो रिस्पांसबिलिटी है, वह भी न हो। हम सब मशीन होना चाहते हैं। हम सब गुलामी खोजते हैं, क्योंकि स्वतंत्रता का उपयोग करना नहीं जानते। और हमें स्वतंत्रता मिले, तो हम अपना आत्मघात ही कर लेते हैं। हमें स्वतंत्रता जब भी मिलती है, तो हम नर्क की यात्रा कर जाते हैं। तो हम कहते हैं, इससे तो बेहतर था हाथ में जंजीरें होतीं, लेकिन स्वर्ग पहुंच जाते; बेहतर होता कि सब तरफ कारागृह होता, लेकिन स्वर्ग पहुंच जाते। क्योंकि हम स्वतंत्रता में सदा नीचे ही चले जाते हैं। इसलिए हम हमेशा गुलामी खोजते हैं, नए-नए ढंग से खोजते हैं। हमारे गुलामी खोजने के ढंग बहुत अदभुत हैं।
एरिक फ्राम ने एक बहुत अदभुत किताब लिखी है : एस्केप फ्राम फ्रीडम; स्वतंत्रता से पलायन। फ्राम का कहना है, हर आदमी स्वतंत्रता से पलायन कर रहा है। जहां भी स्वतंत्रता दिखती है, भाग कर जल्दी किसी गुलामी में अपने को छिपा लेता है।
दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि हमारी गुलामी की आदतें इतनी पुरानी हैं कि हमें खयाल भी नहीं आता कि यह गुलामी है। हमें खयाल भी नहीं आता कि यह गुलामी है। अगर किसी को सत्य खोजना है, तो वह सत्य खोजने नहीं जाता, तत्काल शास्त्र को खोलता है। उसे पता नहीं कि यह गुलामी है। वह सत्य भी उधार ही चाहता है, कोई उसे दे दे। अगर किसी को सत्य खोजना है, तो वह अपने पैरों पर दो कदम नहीं चलता। वह जल्दी किसी गुरु के चरण पकड़ लेता है और कहता है कि बस, आप ही सब कुछ हो, आप ही मुझे दे दो। मुझ पापी से क्या होगा? हालांकि सब पाप उससे हो रहे हैं। क्योंकि पापी होने के लिए काफी करने की जरूरत पड़ती है। वह कहता है, मुझ पापी से क्या होगा? इतने पाप उससे हो सके हैं कि वह कहता है मैं पापी हूं। लेकिन वह कहता है, मुझ पापी से क्या होगा? वह असल में यह कह रहा है कि किसी तरह मेरी स्वतंत्रता से मुझे बचाओ, सेव मी फ्राम माई फ्रीडम। तुम मेरे जेलर बन जाओ। तो कल अगर मैं नर्क में भी पडूं, तो मैं कह सकू कि तुम थे मेरे गुरु। और कल मुझे अगर स्वर्ग भी मिल जाए, तो मैं कह सकू, आखिर मैंने ही तो तुम्हें गुरु चुना था। मैंने ही समर्पण किया था तुम्हारे चरणों में, सब कुछ छोड़ दिया था। तो गुरु पकड़ेगा, शास्त्र पकड़ेगा, नेता को पकड़ेगा।
हिटलर या स्टैलिन या मुसोलिनी या माओ ऐसे ही पैदा नहीं हो जाते, पूरा मुल्क गुलाम होना चाहता है। पूरा मुल्क चाहता है कि कोई जोर से कह दे कि मुझे पता है ठीक क्या है, और हम उसके चरणों में पड़ जाएं। यह झंझट हम पर मत डालो कि ठीक क्या है। साफ-साफ हमें बता दो कि यह करो और यह मत करो।
इसलिए हम नीतिशास्त्रियों के पीछे पड़ते हैं, साधु-महात्माओं के हाथ-पैर जोड़ते हैं कि बताओ ठीक क्या है, गलत क्या है। जिनसे हम पूछ रहे हैं, उन्होंने किसी और से पूछा है। उन्हें भी कुछ पता नहीं है कि ठीक क्या है, गलत क्या है। लेकिन जब हमें पूछते लोग देखते हैं, तो बताने वाले लोग भी मिल जाते हैं। वे हमें बता देंगे कि यह ठीक है
और यह गलत है। कोई हमसे बोझ ले ले स्वतंत्रता बड़ी बोझिल मालूम पड़ती है। होना तो चाहिए उलटा कि स्वतंत्रता पंख बन जाए आकाश में उड़ने के लिए, लेकिन स्वतंत्रता मालूम पड़ती है जंजीरों से भी ज्यादा बोझिल। क्योंकि कुछ सूझता नहीं, क्या करें?
__झेन फकीर हुआ है नान-इन। वह अपने गुरु के पास था। एक दिन रात देर हो गई। अंधेरी रात है, वह वापस लौटने को है। उसने गुरु से कहा कि रास्ता बहुत अंधेरा है। तो गुरु ने कहा कि मैं तुम्हें दीया दिए देता हूं। और गुरु ने दीया जलाया और नान-इन के हाथ में दीया रखा। और जैसे ही नान-इन पहली सीढ़ी पर पैर रख कर नीचे उतरने लगा, गुरु ने दीया फूंक कर बुझा दिया। नान-इन ने कहा, ऐसी कैसी मजाक करते हैं, रास्ता बहुत अंधेरा है। गुरु ने कहा, लेकिन दूसरे के दीए के सहारे जो प्रकाश मिलता है, उससे अपना ही अंधेरा बेहतर है। खोजो रास्ता अंधेरे में।
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