________________
ताओ उपनिषद भाग २
एक पति अपनी पत्नी से कहता है कि मैं तेरा मालिक हूं। एक पत्नी अपने पति से कहती है कि मैं तेरी मालिक हूं। क्योंकि प्रतिस्पर्धी चारों ओर हैं और मालकियत छीनी जा सकती है। मालिक कोई और भी हो सकता है। एक मकान का आप दावा करते हैं द्वार पर तख्ती लगा कर कि मकान मेरा है, क्योंकि इस मकान का दावा अगर आप चूक जाएं समय पर करने से, कोई और भी कर सकता है। लेकिन परमात्मा दावा भी किसके सामने करे?
इसलिए लाओत्से कहता है, वह अपने मालिक होने का दावा नहीं करता। ताओ या परमात्मा या धर्म दावेदार नहीं है, क्योंकि उसका दावा सुनिश्चित है, स्वाभाविक है। वह है ही।
'वह सब कुछ करता है, फिर भी उसे ऐसा करने का कोई अहंकार नहीं है।'
जब भी हम कुछ करते हैं मजबूरी में, जबर्दस्ती में, चेष्टा से, तभी अहंकार निर्मित होता है। जब हम कुछ करते हैं सहज, स्वभाव से, तो अहंकार निर्मित नहीं होता। बहुत से काम हम भी करते हैं जिनसे अहंकार निर्मित नहीं होता। रात आप सोते हैं, दिन भर आप श्वास लेते हैं, लेकिन इससे अहंकार निर्मित नहीं होता। आप ऐसी घोषणा करके, छाती पीट कर बाजार में खड़े होकर नहीं कहते कि आज मैंने इतनी हजार श्वास लीं। थोड़ी-बहुत नहीं लेते, कई हजार श्वास लेते हैं। जीवन भर में अरबों श्वास लेते हैं। अगर हिसाब लगाएं, तो दावा कर सकते हैं कि मैंने अपने जीवन में इतनी श्वास ली! बीस साल तो मैं सोया ही रहा साठ साल में! इतनी बार सुबह उठा, इतनी बार सांझ सोया!
नहीं, इनका हम दावा नहीं करते, क्योंकि ये स्वाभाविक क्रियाएं हैं। हालांकि आदमी दावा करता है। एक रुपया भी उसके खीसे में हो, तो दावा करता है। करोड़ हो, तो करता ही है; एक पैसा हो, तो भी करता है। हालांकि एक श्वास के लिए करोड़ों रुपए देने को तैयार हो सकता है, लेकिन श्वास का दावा नहीं करता। अगर मरते हुए आदमी से हम कहें कि एक श्वास और मिल सकती है, सारी संपत्ति दे दो, तो वह सारी संपत्ति दे देगा और एक श्वास ले लेगा। लेकिन बड़ी हैरानी की बात है, उस क्षुद्र संपत्ति का उसने जीवन भर दावा किया और इस श्वास का कभी दावा न किया, और करोड़ों श्वास लीं।
श्वास स्वभाव थी, इसलिए दावा नहीं किया। धन स्वभाव नहीं था, चेष्टा करके पाया गया था, इसलिए दावा किया। जिसमें चेष्टा होती है, वहां अहंकार निर्मित होता है। जिसमें चेष्टा नहीं होती, वहां अहंकार निर्मित नहीं होता। यह परमात्मा संसार को बना रहा है, अगर इसमें चेष्टा हो वैसी ही, जैसे हम धन को बनाते हैं, तो अहंकार निर्मित होगा। लेकिन अगर यह निश्चेष्ट प्रक्रिया हो वैसे ही, जैसे हम श्वास लेते हैं, तो दावे का प्रश्न नहीं, अहंकार का प्रश्न नहीं। इसलिए जो जानते हैं, वे ऐसा कहना पसंद नहीं करते कि परमात्मा ने संसार को बनाया। वे ऐसा ही कहना पसंद करते हैं कि परमात्मा संसार बन गया है। इतना भी फासला नहीं है। वृक्ष उगते हैं, तो परमात्मा इन्हें बनाता, ऐसा नहीं; परमात्मा वृक्षों में निर्मित होता और बनता है। आकाश में बादल चलते हैं, तो परमात्मा इन्हें चलाता, ऐसा नहीं; परमात्मा ही इन बादलों में सरकता और चलता है। आदमी को परमात्मा बनाता है, ऐसा नहीं; परमात्मा ही आदमी बनता है।
इसे हम ऐसा समझें। एक चित्रकार एक चित्र बनाता है। तो बनाते ही चित्र अलग हो जाता है, चित्रकार अलग हो जाता है। परमात्मा ऐसा नहीं है कि अस्तित्व को बनाता है और अलग हो जाता है। क्योंकि उसके अलग होने का कोई उपाय नहीं, उससे अलग होने की कोई जगह नहीं। परमात्मा जगत के साथ इस तरह जुड़ा है, जैसे नर्तक अपने नृत्य से जुड़ा होता है। एक नृत्य करने वाला नाच रहा है। नाच और नर्तक अलग नहीं होते, एक ही हैं। नर्तक रुक जाएगा, तो नृत्य भी रुक जाएगा। आप नर्तक से यह नहीं कह सकते कि तू चला जा और तेरा नृत्य छोड़ जा।
इसलिए हमने परमात्मा की जो मूर्ति बनाई है, वह नर्तक की तरह बनाई है, नटराज की तरह बनाई है। उसका कारण है। क्योंकि नृत्य और नर्तक एक हैं। इसलिए नर्तक के रूप में परमात्मा की बात सर्वाधिक ठीक से समझी जा सकती है। जगत और परमात्मा एक हैं। और जगत में जो भी घटित हो रहा है, वह परमात्मा का सहज स्वभाव है।
64