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ताओ की अनुपस्थित उपस्थिति
आपके भीतर बज उठा है! अंगुलियां नहीं हैं, लेकिन वीणा को किसी ने छेड़ दिया है! कोई पास नहीं आया, लेकिन कोई बिलकुल अंतरतम में प्रवेश कर गया है। अगर ऐसा प्रेम आपने अनुभव किया हो एक क्षण को भी, तो लाओत्से जो कह रहा है, उसे समझने में आसानी हो जाएगी। क्योंकि परमात्मा का स्वभाव प्रेम जैसा है।
लेकिन अभागे हैं हम, क्योंकि हम प्रेम को ही नहीं जानते। और जो प्रेम को नहीं जानता है, वह परमात्मा को कभी भी नहीं जान पाएगा। क्योंकि प्रेम उसकी ही हलकी किरण का अनुभव है। फिर परमात्मा उन्हीं किरणों का विराट जोड़ है, सूरज है।
लाओत्से का पहला सूत्र है, ताओ सभी को जन्म देता है और सभी का पोषण भी करता, वह सबका जन्मदाता, फिर भी उसकी मालकियत का कोई दावा नहीं करता है। वह कोई मालिक नहीं है। - मनुष्य की चेतना ने हजारों बार हाथ उठा कर आकाश की तरफ उसे धन्यवाद दिया है। मनुष्य की चेतना ने हजारों बार उसके चरणों में सिर रखा है। मनुष्य की चेतना में हजारों बार पुकार उठी है, अनुभव हुआ है, आस्था निर्मित हुई है। लेकिन परमात्मा की तरफ से कोई जवाब कभी नहीं दिया गया। मनुष्य कहता है, तुम हमारे पिता हो। लेकिन उसने कभी नहीं कहा कि तुम हमारे पुत्र हो। मनुष्य कहता है कि तुमने निर्माण किया, तुमने सृजन किया। उसने कभी घोषणा नहीं की कि मैं निर्माता हूं, मैं स्रष्टा हूं। अघोषित, मौन उसका अस्तित्व है।
असल में इसे थोड़ा समझें-जो भी दावा करता है, वह दावा करके ही कह देता है कि दावेदार नहीं है। अगर एक पिता को अपने बेटे से कहना पड़े कि मैं तुम्हारा पिता हूं, एक प्रेमी को अपनी प्रेयसी से कहना पड़े कि मैं तुम्हारा प्रेमी हूं, एक गुरु को अपने शिष्य से कहना पड़े कि आदर करो मेरा, मैं तुम्हारा गुरु हूं, तो बात ही सब व्यर्थ हो गई। क्योंकि जिस दिन गुरु को कहना पड़े कि मैं तुम्हारा गुरु हूं, आदर करो, चरण छुओ मेरे, उसी दिन गुरुता खो गई। असल में, गुरुता जब खो जाती है या होती ही नहीं, तभी दावा होता है। इसलिए किसी गुरु ने कभी नहीं कहा है कि आदर करो। गुरु हम उसे कहते हैं, जिसे आदर किया ही जाता है। जिसे कहना पड़े कि मुझे आदर करो, वह भी भलीभांति जानता है कि गुरु नहीं है।
एक विश्वविद्यालय में मैं था। और वहां शिक्षकों के एक सम्मेलन में किसी ने मुझे पूछा कि गुरुओं का लोग आदर क्यों नहीं करते हैं? आज का विद्यार्थी गुरु का आदर क्यों नहीं करता है? तो मैंने कहा कि गुरु है कहां? क्योंकि गुरु का अर्थ ही होता है, जिसका लोग आदर करते हैं, जिसे आदर करना ही पड़ता है, जो मांगता नहीं और जिसे आदर मिलता है, जिसकी तरफ आदर ऐसे ही बहता है, जैसे पानी सागर की तरफ बहता है।
किसी दिन सागर अगर कहने लगे कि नदियां अब मेरी तरफ क्यों नहीं बहतीं, तो हमें सागर को कहना होगा कि तुम भ्रांति में हो, तुम कोई ताल-तालाब होओगे, सागर नहीं हो। क्योंकि सागर का मतलब ही इतना होता है कि जिसकी तरफ नदियां बहती हैं, जिसकी तरफ नदियों को बहना ही पड़ता है, अन्यथा कोई गति नहीं है। नदी का अस्तित्व ही सागर की तरफ बहने से निर्मित होता है। नदी बनती ही इसलिए है कि वह सागर की तरफ बहती है। अगर वह सागर की तरफ नहीं बहे, तो वह बन ही नहीं सकती, हो ही नहीं सकती।
तो जिस दिन सागर को कहना पड़े कि नदियो, मेरी तरफ बहो, उस दिन समझना कि सागर नहीं है। सागर को यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती है। उसका होना काफी है। गुरु की तरफ आदर बहता है। प्रेमी की तरफ प्रेम बहता है। लेकिन दावा करना पड़ता है, दावा करना ही इसलिए पड़ता है कि दावेदार मौजूद ही नहीं होते। यह उलटा लगेगा, पैराडाक्सिकल लगेगा, लेकिन ऐसा ही है।
तो जब भी आप दावा करें कि मैं प्रेम करता हूं, तब भीतर टटोलना। प्रेम के धुएं की रेखा भी भीतर नहीं मिलेगी। क्योंकि प्रेम अपने आप में काफी दावा है। उसका होना ही उसकी दावेदारी है। और अतिरिक्त दावा सिर्फ
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