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ताओ उपनिषद भाग २
नहीं होता। उसका होना ठोस नहीं है। इसलिए जो बहुत ठोस ढंग से उसे पकड़ना चाहें, वे वंचित रह जाते हैं। और जो इस आशा में घूमते रहते हैं कि हम किसी तरह जैसे और वस्तुओं को जानते हैं, इसी ढंग से उसे भी जान लें, तो वे उसे कभी भी नहीं जान पाते हैं। उसे जानने का ढंग ही बदलना होगा।
इसे हम कुछ तरह से समझें। मैं कहता हूं कि मेरे हृदय में आपके लिए प्रेम है। लेकिन मेरे हृदय को काट कर मेरे प्रेम को किसी भी तरह समझा नहीं जा सकता। और जो मेरे हृदय को काट कर देखने चलेगा, वह इस नतीजे पर पहुंचेगा कि मैं झूठ बोल रहा था। क्योंकि प्रेम कहीं मिलेगा नहीं।
प्रेम कोई वस्तु नहीं है, जिसे हम खोज पाएं। प्रेम कोई पदार्थ नहीं है, जिसे प्रयोगशाला में पकड़ा जा सके और जिसे यंत्र परीक्षा कर लें। और अगर चिकित्सक सब तरह से जांच-पड़ताल करेगा, शरीर-शास्त्री सब तरह खोजेगा, तो और बहुत चीजें हाथ में लगेंगी, जिनका शायद प्रेमी को पता भी नहीं था— हड्डियां लगेंगी, मांस-मज्जा लगेगी, मांस-पेशियां लगेंगी हाथ, फेफड़े लगेंगे, फुफ्फस लगेगा हाथ—सब कुछ लगेगा, प्रेमी को जिसका पता भी नहीं था। जब उसने हृदय पर हाथ रख कर कहा था कि मेरा हृदय प्रेम से भरा है, तो जिस चीज को वह कह रहा है, वही भर शरीर-शास्त्री के हाथ नहीं लगेगी; और बहुत कुछ लगेगा, जिसका उसे पता भी नहीं है। और शरीर-शास्त्री अपनी टेबल पर फैला कर रख देगा सब कुछ। लेकिन उसमें प्रेम कहीं भी नहीं होगा। निश्चित ही शरीर-शास्त्री कहेगा, प्रेम जैसी कोई भी बात नहीं है, यह आदमी या तो झूठ बोलता था या भ्रांति में था। दो ही उपाय हो सकते हैं: कि या तो यह जान कर झूठ बोल रहा था या अनजाने झूठ बोल रहा था, क्योंकि स्वयं भ्रांति में पड़ गया था।
लेकिन एक आश्चर्य की बात है कि शरीर-शास्त्री से अगर हम यह पूछे कि यह भी मान लिया जाए कि प्रेम नहीं था, भ्रांति थी, तो भ्रांसि भी तो तुम्हारी पकड़ में कहीं नहीं आती! यह आदमी प्रेम में नहीं था, भ्रांति में था, तो भ्रांति भी तो तुम्हारी टेबल पर कहीं पकड़ में नहीं आती! यह आदमी भ्रांति में नहीं था, असत्य बोल रहा था, तो भी वह असत्य प्रेम जो यह बोल रहा था, जो असत्य इसके भीतर घटित हो रहा था, वह भी तुम्हारी टेबल पर कहीं पकड़ में नहीं आता! असल में, शरीर-शास्त्री को कहना चाहिए कि यह आदमी था ही नहीं जो बोल रहा था, क्योंकि वह आदमी ही कहीं पकड़ में नहीं आता है। और जो पकड़ में आता है, वहां बोलने वाला कोई भी नहीं है। लेकिन यह तो शरीर-शास्त्री भी नहीं कह पाएगा, क्योंकि वह भी बोल रहा है।
तो प्रेम को हमें कहना पड़ेगा कि प्रेम का अस्तित्व है, लेकिन वस्तुओं जैसा अस्तित्व नहीं है। कुछ भिन्न अस्तित्व है। ए डिफरेंट डायमेंशन ऑफ एक्झिस्टेंस! कोई दूसरा ही आयाम है प्रेम का। प्रेम होता है, लेकिन वस्तुओं जैसा नहीं है। इसलिए ध्यान रखें, प्रेम जितना अनुपस्थित होता है, उतना गहन होता है। और जितना उपस्थित हो जाता है, उतना क्षुद्र हो जाता है। जब कोई किसी से कहता है कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तब वह प्रेम को क्षुद्र किए दे रहा है। क्योंकि इतना कह कर भी हम प्रेम को इंद्रियों की पकड़ में ला देते हैं। कम से कम कान तो सुन लेते हैं।
इसलिए बुद्ध जैसा व्यक्ति तो किसी से यह भी नहीं कहेगा कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। क्योंकि यह कहना भी प्रेम की हत्या है। अगर प्रेम है, तो उसको इतना भी उपस्थित करने की आवश्यकता नहीं है। और अगर वह है, तो वह अनुभव में आएगा। और अगर वह गैर-उपस्थित हुए अनुभव में नहीं आ सकता, तो उसके अनुभव में आने का कोई प्रयोजन भी नहीं है।
लेकिन क्या कभी आपने ऐसा अनुभव किया है, कोई ऐसा प्रेम, जो कहा न गया हो, बोला न गया हो, प्रेमी ने आपका हाथ स्पर्श न किया हो, प्रेमी ने आपको गले से न लगाया हो, प्रेमी ने कोई उपाय ही न किया हो प्रेम के प्रकट करने का और अचानक आपने पाया हो कि किसी गंगा में आप नहा गए हैं। अचानक आपने अनुभव किया हो कि कोई फूलों की वर्षा आप पर हो गई है! अचानक आपने अनुभव किया हो कि कोई संगीत किसी अनजाने कोने से
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