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शलीन व आत्मा की एकता, ताओ की प्राण-साधना व अविकारी स्थिति
तो लाओत्से कहता है, ये तीन बातें जो व्यक्ति पूरी कर ले प्राण की साधना में...।
ध्यान रहे, लाओत्से की प्राण की साधना भारतीय प्राणायाम से भिन्न है। क्योंकि भारतीय प्राणायाम बौद्धिक है। और भारतीय प्राणायाम आयोजित है, चेष्टित है। और भारतीय प्राणायाम में प्राण को बुद्धि के द्वारा व्यवस्था दी जाती है। और लाओत्से का प्राणायाम नैसर्गिक है। बुद्धि के द्वारा व्यवस्था नहीं देनी है, वरन बुद्धि ने जो व्यवस्था दी है अब तक, उसको भी तोड़ डालना है और नैसर्गिक प्राण की गति को खोज लेना है। जो सहज गति है, जो जन्म से हमारे साथ थी, उसे खोज लेना है। तो भारतीय प्राणायाम और लाओत्से की प्राण-साधना में बुनियादी अंतर है।
और लाओत्से की प्राण-साधना ज्यादा गहरी है प्राणायाम से। क्योंकि प्राणायाम फिर आखिर मनुष्य का हिसाब है। कि बाईं नाक को रोक कर तीन दफे, फिर दाईं नाक को रोक कर तीन दफे, फिर इतनी देर भीतर रोकना, फिर इतनी देर बाहर छोड़ना, फिर इतना रेचक, फिर इतना कुंभक, यह सबका सब बुद्धिगत है। इसके उपयोग हैं और इसके फायदे हैं। लेकिन इसके उपयोग और फायदे शरीर तक ही हैं। और इसके उपयोग और फायदे से व्यक्ति सुंदरतम स्वास्थ्य को उपलब्ध हो सकता है। और इस साधना के द्वारा शक्ति को भी उपलब्ध हो सकता है। लेकिन लाओत्से की प्राण-साधना बिलकुल भिन्न है। उससे व्यक्ति निसर्ग को उपलब्ध होता है, प्रकृति को-जो है हमारे सब सोच-विचार के पहले और जो बचेगा हमारे सब सोच-विचार के खो जाने के बाद।
___ इसलिए प्राण-योग, भारतीय प्राणायाम बिना गुरु के खतरनाक हो सकता है। क्योंकि उसमें आयोजना है, व्यवस्था है, डिसिप्लिन है। लाओत्से की प्राण-साधना गुरु के बिना बड़े मजे से चल सकती है; कोई कारण नहीं है। क्योंकि लाओत्से की प्राण-साधना में सीखना कम है, भूलना ज्यादा है। हम जो सीख गए हैं गलत, उसे सिर्फ छोड़ देना है। और जो स्वाभाविक है, वह प्रकट हो जाएगा। कुछ नई अनुशासन-व्यवस्था थोपनी नहीं है; सब अनुशासन तोड़ देना है और निसर्ग को मौका देना है कि वह जैसा चलना चाहे चले।
लेकिन जैसा मैंने आपसे कहा, जब तक आप अपने शरीर को स्वीकार नहीं करते और शरीर को स्वीकार करने का अर्थ है, जब तक आप अपने यौन को स्वीकार नहीं करते तब तक आप कभी भी शरीर के साथ संवेदना को उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। और जब तक आप अपने भीतर किसी चीज की निंदा ही किए चले जाते हैं, तो आलिंगन कैसे करेंगे? और जब अपने ही भीतर आपने दीवारें बना रखी हैं, तो दूसरे से मिलने की तो बात ही छोड़ दें, अपने से ही मिलना नहीं हो पा रहा है। और जो अपने से भी मिलने में डर रहा है, वह परमात्मा से मिलने में निर्भय होगा, इसे मानने का कोई भी कारण नहीं है।
स्वीकार करें जो है भीतर; उसे परमात्मा की देन की तरह स्वीकार कर लें। निंदा को छोड़ दें। कुछ पाप नहीं है, कुछ अपराध नहीं है। जो भीतर है, वह प्रभु का हिस्सा है। उसे स्वीकार कर लें। और जैसे ही आपके भीतर सर्व-स्वीकृति आती है, वैसे ही शरीर के और आपकी चेतना के बीच की सब बाधाएं टूट जाती हैं और शरीर और चेतना एक तरल धारा हो जाते हैं। तब शरीर आपका ही हिस्सा है—बाहर फैला हुआ। और आत्मा आपका ही शरीर है-भीतर गया हुआ। तब शरीर ठोस आत्मा है और आत्मा तरल शरीर है। तब शरीर दृश्य आत्मा है और आत्मा अदृश्य शरीर है। तब ये एक ही चीज के दो छोर हैं। और जिस दिन ऐसा अनुभव होता है, उसी दिन यह सारा जगत एक हो जाता है। उस दिन पत्थर में और परमात्मा में फर्क नहीं रह जाता।
जिन लोगों ने परमात्मा की मूर्तियां पत्थर से बनाईं, वे बड़े होशियार थे। उन्होंने एक सूचना दी है कि जब तक तुम्हें पत्थर परमात्मा न दिखाई पड़ने लगे, तब तक तुमने कुछ भी नहीं पाया, इसे ठीक से जानना। पत्थर की मूर्ति बनाने का और कोई प्रयोजन नहीं है। एक इंगित कि पत्थर भी जब परमात्मा दिखाई पड़ने लगे, तभी तुम जानना कि तुमने परमात्मा को जाना।