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ताओ उपनिषद भाग २
कब्जियत आपके चित्त की कंजूसी का परिणाम होती है। सभी चीजों को रोकने का मन होता है, तो मल तक को रोक लेता है। श्वास को भी रोक लेता है। देते में डरता है। बस लेने भर को आतुर होता है।
लेकिन जीवन का नियम है जितना ज्यादा देंगे, उतना मिलता है। अगर आपने श्वास छोड़ने में कंजूसी दिखाई, तो आप पा नहीं सकेंगे। क्योंकि पाएंगे कहां से? सिर्फ गंदी श्वास भीतर इकट्ठी हो जाएगी। सिर्फ कार्बन डाय आक्साइड भीतर इकट्ठा हो जाएगी। कोई छह हजार छिद्र हैं आपके श्वास के यंत्र में। हम ज्यादा से ज्यादा डेढ़ हजार, दो हजार छिद्रों तक श्वास लेते हैं। चार हजार छिद्र सदा ही कार्बन डाय आक्साइड से भरे रहते हैं। हम उन्हें कभी खाली ही नहीं करते हैं। हम गंदगी को अपने भीतर इकट्ठा कर लेते हैं। और हम ऊपर ही ऊपर जीते रहते हैं। और भीतर गंदगी की पर्ते इकट्ठी होती चली जाती हैं।
ताओ का मानना है कि श्वास को उलीचें और लेने की आप फिक्र न करें। क्योंकि लेना तो अपने आप हो जाएगा, उलीचना भर काफी है। और जितनी आप श्वास को उलीच देंगे, उतनी ताजी श्वास भीतर चली आएगी। और यह उलीचने पर जोर देने का कारण है, क्योंकि इस जोर की बदलाहट से, इस उलीचने की तरफ जोर बढ़ने से आपके पूरे जीवन में देने की संभावना बढ़ने लगेगी। हमारा सारा क्रोध इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारी सारी घृणा इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारी ईर्ष्या इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारे जीवन का सारा उलझाव क्या है? कि देने की हमें जरा भी इच्छा नहीं है और लेना हम बहुत चाहते हैं। जो दे नहीं सकता, उसे कुछ भी नहीं मिलेगा। और जो दे सकता है, उसे हजार गुना सदा मिल जाता है। और जो हम देते हैं, अगर हम लोहा देते हैं, तो सोना मिल जाता है। कार्बन डाय आक्साइड उलीचिए और प्राणवायु भीतर भर जाती है, आक्सीजन भीतर भर जाती है। यही पूरे जीवन का सूत्र है।
तो लाओत्से का दूसरा सूत्र है: सदा श्वास को फेंकिए; लेने को भूल ही जाइए। लेने का आपको काम ही नहीं करना है, वह तो प्रकृति स्वयं कर लेती है। आप सिर्फ उलीच दें, फेंक दें, हटा दें। खाली जगह छोड़ दें, वह भर जाएगी। और अगर आपका जोर छोड़ने पर हो और लेने पर बिलकुल न हो, तो चित्त एकदम नमनीय हो जाएगा। क्योंकि लेने में तनाव होता है, जबर्दस्ती होती है। छोड़ने में तो सिर्फ हलकापन आता है। छोड़ने में सिर्फ निर्भार होते हैं। भरना तो एक भार है। छोड़ना निर्भार होना है। छोड़ना तो वजन कम कर देता है।
तो दूसरा सूत्र है : छोड़ें, श्वास को लें मत। _ और तीसरा सूत्र है लाओत्से का केंद्र नाभि हो जाए, छोड़ने पर जोर हो जाए और तीसरा—यह जो श्वास का आना-जाना है, इससे अपने को पृथक न समझें। जब श्वास बाहर जाए, तो समझें कि मैं बाहर चला गया; और जब श्वास भीतर आए, तो समझें कि मैं भीतर आ गया। प्राण के साथ एक हो जाएं।
हम क्या करते हैं? हम कहते हैं, श्वास मुझमें आई, श्वास मुझसे बाहर गई। लाओत्से कहता है इससे बिलकुल उलटी बात। वह कहता है, श्वास के साथ मैं बाहर गया, श्वास के साथ मैं भीतर आया। मैं ही बाहर हं, मैं ही भीतर हूं। श्वास के साथ इस शरीर में भीतर आता हूं, श्वास के साथ इस शरीर के बाहर विराट शरीर में जाता हूं। चलते, उठते, बैठते, अगर यह खयाल रख सकें कि श्वास के साथ मैं बाहर गया और श्वास के साथ मैं भीतर आया। इसका जप निर्मित हो जाए। यह धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे जप की भांति आपके भीतर गूंजने लगे कि श्वास में बाहर गया, श्वास में भीतर आया। तो श्वास की यह सतत क्रिया अगर जप बन जाए बाहर और भीतर आने की, तो अद्वैत फलित होता है, तो अद्वैत का अनुभव होता है।
और अगर ये तीन बातें ध्यानपूर्वक हो जाएं, तो लाओत्से कहता है, 'जब कोई अपनी प्राणवायु को अपनी ही एकाग्रता के द्वारा नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचा देता है, तो वह शिशुवत कोमल हो जाता है।'
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