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ताओ उपनिषद भाग २
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आकर लौट जाएगी। यह श्वास का ऊपर से आकर लौट जाना इस बात का सूचक है कि आप अपनी मूल प्रकृति से बहुत दूर हो गए हैं।
लेकिन कुछ कारण हैं जिनकी वजह से हम लोगों को शिक्षा देते हैं कि पेट से श्वास मत लेना। एक तो एक पागलपन का खयाल सारी दुनिया में फैल गया है और वह यह है कि छाती फूली हुई होनी चाहिए, छाती बड़ी होनी चाहिए। तो छाती जितनी बड़ी करनी हो, उतनी श्वास छाती में भरनी चाहिए, नीचे नहीं; और छाती से ही वापस लौटा देनी चाहिए। तो छाती को बड़ा करने का पागलपन व्यक्ति के भीतर एक भयंकर उत्पात को निर्मित कर देता है।
अगर आपने कभी जापानी या चीनी फकीरों की तस्वीरें देखी हैं, या लाओत्से की तस्वीर अगर आपने कभी देखी है, तो आपको थोड़ी हैरानी होगी। चीन और जापान में तो बुद्ध की भी जो तस्वीरें और मूर्तियां बनाई हैं, वे भी देख कर हमें हैरानी होगी। क्योंकि हमने जो बुद्ध की मूर्तियां बनाई हैं, उनसे उनका मेल नहीं है। हमारी जो बुद्ध की मूर्तियां हैं, उनमें पेट बहुत छोटा है, पीठ से लगा हुआ है; और छाती बड़ी है। और जापान और चीन में बुद्ध की भी जो मूर्तियां हैं, उनमें पेट बड़ा है, ठीक बच्चे जैसा है। बच्चे की छाती तो विश्राम में होती है; पेट थोड़ा सा बड़ा होगा, क्योंकि श्वास पेट पर आएगी जाएगी।
छाती को बड़ा करने का खयाल भीतर एक खतरनाक स्थिति को पैदा करता है। और वह खतरनाक स्थिति है : ऐंद्रिक और बौद्धिक...। तीन केंद्र ताओ मानता है: एक तांदेन - नाभि केंद्र, दूसरा हृदय केंद्र और तीसरा बुद्धि का मस्तिष्क केंद्र । नाभि केंद्र अस्तित्व का सबसे गहरा केंद्र है। फिर उसके बाद उससे कम गहरा केंद्र हृदय का है। और सबसे कम गहरा केंद्र बुद्धि का है।
इसलिए बुद्धिवादी अस्तित्व से सबसे ज्यादा दूर होता है। उससे तो निकट वे लोग भी होते हैं, जो हृदयवादी हैं। तथाकथित ज्ञानियों से भक्त भी कहीं ज्यादा अस्तित्व के निकट होते हैं। जिसने केवल बुद्धि को ही सब कुछ जाना है, वह आदमी सतह पर जीता है। हिसाब उसका पूरा होता है; गणित उसका साफ होता है; तर्क उसके स्पष्ट होते हैं। लेकिन कभी भी गहराई में वह नहीं उतरता; क्योंकि गहराई में सदा खतरा है। क्योंकि तर्क भी खो जाते हैं, हिसाब भी खो जाता है। वह सतह पर जीता है, जहां सब साफ-सुथरा है। हृदय में उतरे कि तर्क और गणित और सब साफ-सुथरी दुनिया खो जाती है। इसलिए बुद्धिवादी हृदय की बात से भयभीत होता है। क्योंकि हृदय के साथ ही अराजकता, अतर्क्य, राग का जन्म हो सकता है। प्रेम पैदा हो सकता है। भक्ति आ सकती है। कुछ हो सकता है, जिसके लिए तर्क देना मुश्किल पड़े। इसलिए बुद्धिवादी बुद्धि से जीता है। और बुद्धि से नीचे प्रवेश नहीं करता ।
जितना बुद्धिवादी आदमी होगा, श्वास उतनी ऊपर से चलेगी । श्वास की ऊंचाई और नीचाई को जान कर आदमी का टाइप जाना जा सकता है। जितना हृदयवादी व्यक्ति होगा, श्वास उतनी गहरी चलेगी ।
लेकिन लाओत्से कहता है, हृदय भी आखिरी गहराई नहीं है । और गहरे उतरना जरूरी है। और उसको वह तांदेन कहता है। नाभि से श्वास चलनी चाहिए। नाभि से जिसकी श्वास चल रही है, वह अस्तित्व के साथ वैसा ही जुड़ गया है, जैसे छोटे बच्चे जुड़े होते हैं।
'जब कोई अपनी प्राणवायु को अपनी ही एकाग्रता के द्वारा नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचा दे, तो वह व्यक्ति शिशुवत कोमल हो जाता है।'
- अपनी श्वास को नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचा दे! नमनीयता का अर्थ है, तनावशून्य तरलता को पहुंचा दे। अगर आप तनावमुक्त हों, शून्य हों, तो श्वास आपकी अनिवार्य रूप से नाभि केंद्र पर पहुंच जाएगी। कभी शिथिल होकर, शांत होकर, कुर्सी पर बैठ कर देखें, आपको फौरन पता चलेगा : श्वास नाभि से चलने लगी। लेकिन ढीला छोड़ें अपने को ।