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सिद्धांत व आचरण में बही, सरल-सहज स्वभाव में जीना
लेकिन हम सब संकीर्ण होते हैं; अपनी दृष्टि से बंधे होते हैं। महावीर ने कहा है कि जब तक तुम दृष्टि से ऊपर न उठो, तब तक दर्शन को उपलब्ध न हो सकोगे। उलटी बात लगती है : दृष्टि से ऊपर न उठो, तब तक दर्शन को उपलब्ध न हो सकोगे। महावीर ने कहा है, सम्यक-दृष्टि वह है, जिसकी सब दृष्टियों से जो ऊपर उठ गया।
दृष्टि का मतलब होता है, मेरे देखने का ढंग। अगर मैं अपने देखने के ढंग से बंध गया हूं, तो आपके देखने के ढंग को मैं समझ ही न पाऊंगा। और अगर मेरे देखने के ढंग में कोई बंधन नहीं है, तो मैं सभी दृष्टियों को समझ पा सकता हूं। और तब एक दिन मुझे समझ में आ सकता है कि नदियां कितनी ही प्रतिकूल क्यों न बहती हों, वे सभी सागर में पहुंच जाती हैं। और तब मैं यह न कहूंगा कि जो नदी पूर्व की तरफ जा रही है, वह गलत है; क्योंकि मेरी नदी पश्चिम की तरफ जा रही है। तब मुझे सागर दिखाई पड़ेगा सभी नदियों से। लेकिन दृष्टि बंधी हो, तो बहुत कठिनाई हो जाती है। और तब हम समझ ही नहीं पाते। फिर तो सोचने का उपाय नहीं रह जाता।
लाओत्से कठिन है इस लिहाज से। क्योंकि उसकी सोचने की पद्धति, उसके देखने का ढंग, उसके बोलने की व्यवस्था अनूठी है। और इसीलिए उसे समझने में मजा भी है। अगर आप समझ पाए, तो आप विकसित हो जाएंगे, फैल जाएंगे, विस्तार होगा आपके बोध का। अगर आप न समझ पाए, तो संकीर्ण रह जाएंगे।
और सदा अच्छा है अपने से प्रतिकूल भाषा में सोचने वाले को समझना। जो आपकी ही भाषा में सोचता है, वह आपको बदल नहीं पाता, सिर्फ आपका संग्रह बढ़ाता है। आपके पास दस बातें थीं, बारह हो जाती हैं, पंद्रह हो जाती हैं। लेकिन जो आपसे भिन्न सोचता है, वह आपके लिए नया आकाश खोल देता है। सिर्फ बढ़ती नहीं होती, आपकी चेतना समृद्ध होती है।
तो लाओत्से को समझने के लिए थोड़ा अपनी दृष्टियों को एक तरफ रख देने की जरूरत है। नहीं तो आपकी दृष्टि प्रश्न खड़े करेगी, वे प्रश्न बेमानी हैं। क्योंकि वे समझ कर खड़े नहीं हो रहे हैं।
इस सूत्र को समझें, तो खयाल में आएगा। 'बुद्धिमत्ता को छोड़ो।'
कठिन लगेगा। बुद्धिमत्ता को खोजो, यह समझ में आता है। बुद्धिमत्ता को छोड़ो! तीन शब्द हैं हमारे पास। एक शब्द है : इनफरमेशन, सूचना। दूसरा शब्द है : नालेज, ज्ञान। और तीसरा शब्द है : विजडम, बुद्धिमत्ता। अधिक लोग तो सूचना को ही ज्ञान समझते हैं, इनफरमेशन को ही नालेज समझते हैं। जितना ज्यादा जानते हैं, सोचते हैं, उतने ज्ञानी हो गए। मात्रा ही उन्हें गुण मालूम होती है, क्वांटिटी को वे क्वालिटी समझते हैं; कि अगर मैं हजार बातें जानता हूं, तो मैं ज्ञानी हो गया।
आप थोड़े बड़े कम्प्यूटर हो गए। आपकी स्मृति ज्यादा हो गई, संग्रह बढ़ गया, आप नहीं बढ़ गए। स्मृति ज्ञान नहीं है। सूचना ज्ञान नहीं है। सूचना बहुत हो सकती है; तब आदमी जानकार होता है, शिक्षित होता है। ज्ञानी नहीं होता।
लेकिन यह बहुत कठिन नहीं है। जगत में बहुत लोगों ने कहा है कि सूचनाओं को छोड़ो, ज्ञान को पाओ। सूचनाओं से कोई सार नहीं है। कितना भी इकट्ठा कर लोगे, उससे क्या होगा! और जो भी इकट्ठा है, वह उधार है। सब सूचनाएं उधार होती हैं। और ज्ञान होता है अपना। इसलिए उधार को छोड़ो और अपने अनुभव को उपलब्ध होओ। यह भी समझ में आ जाएगा।
लेकिन लाओत्से कहता है, ज्ञान भी छोड़ो। यह जानना भी छोड़ो। क्योंकि यह जानना और न जानना एक द्वंद्व है। यह भी एक संघर्ष है। यह भी छोड़ो।
यह भी हम मान ले सकते हैं। बुद्ध ने भी कहा है, जान कर क्या होगा? शास्त्र जान लिए, तो क्या होगा? जानने का सवाल नहीं है, प्रज्ञा बढ़नी चाहिए; अंतर-बोध बढ़ना चाहिए। समझ, अंडरस्टैंडिंग बढ़नी चाहिए।
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