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ताओ उपनिषद भाग २
तो जो लोग द्वंद्व के भीतर हैं, वे तो संतुलन करेंगे ही। महावीर को इसलिए लाओत्से साधु नहीं कहेगा। क्योंकि साधु तो असाधु पैदा करेगा ही। साधु-असाधु द्वंद्व है; बुरा-भला द्वंद्व है। लाओत्से कहेगा, महावीर दोनों के पार हो गए। न अब वे बुरे हैं, न अब वे भले हैं। क्योंकि भले होने के लिए भी बुरे से तो जुड़ा ही रहना पड़ता है। भले होने का कोई अर्थ ही नहीं होता, अगर हम बुरे के साथ जोड़ कर न सोचें। भले हैं, क्योंकि झूठ नहीं बोलते; लेकिन झूठ से जोड़ना पड़ेगा। भले हैं, क्योंकि क्रोध नहीं करते; लेकिन क्रोध से जोड़ना पड़ेगा। भले हैं, चोरी नहीं करते; लेकिन चोरी से जोड़ना पड़ेगा। सब भलाई बुराई से जुड़ी हुई होगी। अगर महावीर को हम भला कहते हैं, तो महावीर द्वंद्व के बाहर नहीं हैं। और तब तो उनके द्वारा बुरा भी पैदा होगा। लेकिन महावीर भले नहीं हैं। महावीर बुरे भी नहीं हैं। ये दोनों कोटियां उनके ऊपर लागू नहीं होतीं। वे दोनों के बाहर हो गए।
हमें समझना कठिन पड़ेगा। क्योंकि हमने सोचने की एक धारा बना रखी है। हमने बुरे और भले में सबको बांट रखा है। तीसरी कोई कोटि नहीं है। और तीसरी कोटि ही असली कोटि है। उस तीसरी में जो प्रवेश करता है, वही जीवन की परम अवस्था को, जिसे लाओत्से ताओ कहता है, सहज धर्म को उपलब्ध हो जाता है।
तो हमारी सारी कठिनाई एक ही पड़ेगी बार-बार लाओत्से को समझने में। और वह यह कि आपकी एक बंधी हुई धारणा है। उसे एक तरफ रखें। जरूरी नहीं है कि उसे रखने से आप लाओत्से को सही ही मानें। लेकिन उसे एक तरफ रखें, ताकि लाओत्से को समझ सकें वह क्या कह रहा है? फिर पीछे तय कर लेना कि वह सही है या गलत है।
और जहां तक मैं समझता हूं, जो समझ पाएगा कि वह क्या कह रहा है, वह कभी भी इस खयाल का नहीं हो सकता कि वह गलत कह रहा है। और जिसका यह खयाल हो कि वह गलत कह रहा है, उसका एक ही मतलब होता है कि वह समझ ही नहीं पाया कि लाओत्से क्या कह रहा है। उसके कहने का ढंग अलग है, उसकी पहुंच अलग है, उसके प्रकट करने का ढंग अलग है। अगर ढंग को आप जोर से पकड़ेंगे, तो मुश्किल में पड़ेंगे। और आदमी हमेशा मुश्किल में पड़ता रहा है। महावीर के कहने का ढंग एक है; बुद्ध का बिलकुल विपरीत है। कृष्ण एक ढंग से कहते हैं; क्राइस्ट बिलकुल दूसरे ढंग से कहते हैं। यह सारी दुनिया में इतने धर्मों का जो उपद्रव है, यह कहने के ढंग को न समझ पाने की भूल है। और अब तक मनुष्यता इतनी प्रौढ़ नहीं हो पाई कि हम शैलियों के भेद को, भाषाओं के भेद को सत्य का भेद न समझें।
महावीर से अगर पूछे कोई बात, तो महावीर की अपनी कहने की व्यवस्था है। होगी ही। बुद्ध की अपनी कहने की व्यवस्था है। और सत्य इतना बड़ा है कि बुद्ध और महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट, सबके लिए उसमें जगह है। हम सबका खयाल यह होता है कि सत्य बड़ी छोटी चीज है। जब हम उसमें बैठ गए, तो दूसरा उसमें कैसे बैठेगा? सत्य बहुत बड़ी चीज है, काफी जगह है। आपके जो प्रतिकूल है, उसको भी काफी जगह है वहां होने की। पर हम सबका खयाल यह होता है कि जब मैं ही बैठ गया सत्य पर, तो अब जगह कहां बची कि कोई दूसरा उस जगह में समा जाए। बाकी जो भी है, वह असत्य होगा। सत्य बड़ी घटना है। विपरीत को भी सत्य समा लेता है।
यह बड़े मजे की बात है कि असत्य बहुत छोटी चीज है, विपरीत को नहीं समा सकता। कभी आपने खयाल किया, अगर आप एक असत्य बोल रहे हैं, तो उसके विपरीत को आप कभी स्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि उसको स्वीकार करने का मतलब होगा, आपका असत्य टूट जाएगा। असत्य बड़ी संकीर्ण चीज है। उसमें ज्यादा जगह नहीं है। इसलिए जो असत्य बोलता है, वह किसी दूसरे को स्वीकार नहीं कर सकता। सत्य बहुत बड़ी घटना है। आप जो बोल रहे हैं, उससे बिलकुल विपरीत भी सत्य हो सकता है। और सत्य में दोनों के लिए जगह है। और परम सत्य को वही उपलब्ध होता है, जो सभी सत्यों के लिए जगह को देख पाता है।
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