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ताओ उपनिषद भाग २
हाथ में संवेदना हो, हाथ जीवंत हो और हाथ का रो-रोआं और हाथ का अणु-अणु और हाथ का कोष्ठ-कोष्ठ बिजली से भर जाए छूते समय, तो ही बुद्धि ग्रहण कर सकती है इस स्पर्श के आनंद को। अगर हाथ ही मुर्दा पड़ा रहे, तो बुद्धि तक कोई खबर ही नहीं पहुंचती। और बुद्धि तक खबर न पहुंचे, तो बुद्धि के पास सीधा कोई उपाय नहीं है। इंद्रियां बुद्धि के द्वार हैं और शरीर आत्मा का साधन है, शरीर आत्मा का फैलाव है स्थूल जगत में। और अगर हम शरीर से दुश्मनी कर लें, तो हम जगत से अपना संबंध तोड़ लेते हैं। जिस मात्रा में हमारा अपने शरीर से संबंध टूटता है, उसी मात्रा में हमारा अस्तित्व से संबंध टूट जाता है। फिर हम जीते हैं, लेकिन हमारे और अस्तित्व के बीच एक फासला बना रहता है। हम कहीं भी चले जाएं, हम अस्तित्व से दूर ही बने रहते हैं। हम प्रेम भी करें, तो फासला होता है। हम करुणा भी करें, तो फासला होता है। हम मित्रता भी बनाएं, तो एक फासला होता है, जिसके आर-पार हम खड़े रहते हैं और आर-पार पहुंचना बहुत मुश्किल है।
लाओत्से कहता है, यह द्वैत हमारे भीतर पैदा होता है हमारी बुद्धि और हमारी इंद्रियों के बीच फासले के निर्माण से।
लेकिन यह फासला उपयोगी है। एक समय निर्मित होना चाहिए। और एक समय यह फासला टूट भी जाना चाहिए। इसे एक सीढ़ी की तरह उपयोग करना उचित है। इसलिए जीसस ने कहा है कि वे ही मेरे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे, जो बच्चों की भांति हो जाएंगे। पुनः बच्चों की भांति। पुनः उतने संवेदनशील, जितने बच्चे हैं। एक-एक अनुभव जिनके लिए प्राणों तक उतर जाए, ऐसे जो हो जाएंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
बच्चे के पास एक अद्वैत है, लेकिन अज्ञान से भरा। ज्ञानी के पास यही अद्वैत पुनः चाहिए, ज्ञान से भरा! बच्चे में एक निर्दोषिता है, एक इनोसेंस है, लेकिन अज्ञानपूर्ण, इग्नोरेंट इनोसेंस। ज्ञानी में यही निर्दोषिता पुनः चाहिए, लेकिन प्रज्ञापूर्ण। जानता हुआ, जागा हुआ निर्दोष भाव पुनः स्थापित होना चाहिए।
बच्चे का अद्वैत टूटेगा, क्योंकि वह बच्चे की उपलब्धि नहीं है। परिस्थिति और संघर्ष उसके अद्वैत को तोड़ देंगे। लेकिन आवश्यक नहीं है कि अद्वैत टूटा हुआ ही व्यक्ति मर जाए। मरने के पहले यह अद्वैत पुनः स्थापित हो. सकता है। और जब यह पुनः स्थापित होता है, तो पहले वाले अद्वैत.से ज्यादा समृद्ध होता है। क्योंकि अनुभव इसमें हजार गरिमाएं जोड़ जाता है। क्या किया जा सके कि हमारे भीतर एक अद्वैत आबद्ध हो जाए? हम कैसे भीतर एक हो जाएं? लाओत्से की साधना-पद्धति में भीतर होने के बड़े सुगम उपाय हैं। एक उपाय की हम पहले बात करें और फिर उसकी गहरी साधना पर चर्चा।
लाओत्से मानता था, तुम जो भी करो-उठो या बैठो, भोजन करो या सोओ-जो भी करो, उसमें पूरे संयुक्त और एक और लीन हो जाओ। अगर रास्ते पर चल रहे हो, तो चलना ही बन जाओ। इतना भी फासला मत रखो कि मैं चल रहा हूं। साक्षी की जिस साधना की हम चर्चा करते रहे हैं, लाओत्से कहता है, साक्षी भी अद्वैत पर नहीं ले जा सकेगा। एक सीमा पर साक्षी को भी छोड़ देना जरूरी है। कृष्णमूर्ति अवेयरनेस की, जागरूकता की बात करते हैं। वह भी अद्वैत पर नहीं ले जा सकेगी। एक जगह जाकर उसे भी छोड़ देना जरूरी है। लाओत्से कहता है, न जागरूकता, न साक्षी, वरन एकता, लीनता। तुम जो कर रहे हो, वही हो जाओ। चल रहे हो, तो चलने की क्रिया ही हो जाओ; चलने वाला न बचे। और भोजन कर रहे हो, तो भोजन करना ही हो जाओ; भोजन करने वाला न बचे।
और अगर देख रहे हो, तो आंख ही बन जाओ; देखने वाला न बचे। और अगर सुन रहे हो, तो कान ही बन जाओ। जो भी कर रहे हो, उसमें इतनी समग्रता से एक हो जाओ कि भीतर कोई फासला न रहे। भीतर कोई भी फासला न रहे। और अगर भीतर का फासला क्रियाओं में टूटता चला जाए, तो बद्धि और वासना के बीच, इंद्रिय और विवेक के बीच, आत्मा और शरीर के बीच सेतु निर्मित हो जाता है। वे दोनों आलिंगन में आबद्ध हो जाते हैं।
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