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श्रेष्ठ शासक काँब?-जो परमात्मा जसा छो
तथाकथित धार्मिक आदमी, जो धर्म से शराब का ही काम ले रहा है, वह शराबियों के बड़े खिलाफ होगा। सजातीय हैं वे। और शराब काम्पिटीटर है उनके धर्म का। इसलिए तथाकथित धार्मिक आदमी शराब के बड़ा खिलाफ होगा। क्योंकि उसे पक्का भरोसा है कि अगर शराब ज्यादा चलती है, तो धर्म कम चलेगा। वह काम्पिटीटर है।
ठीक धार्मिक आदमी को शराब से क्या विरोध हो सकता है! बल्कि एक अर्थ में बेहतर है कि आदमी शराब पीकर भुला ले। धर्म पीकर जो भुलाता है, वह ज्यादा खतरनाक है; क्योंकि धर्म का दुरुपयोग है वह। और शराब का यह सदुपयोग है। शराब की श्रेष्ठतम संभावना यही है कि आपको भुला दे। धर्म की यह निकृष्टतम संभावना है कि भुला दे।
तो जो धर्म का शराब की तरह उपयोग करता है, वह धर्म को भी नुकसान पहुंचाता है। उससे बेहतर है वह शराब ही पी ले। कम से कम रास्ता सीधा, साफ-सुथरा तो है। अपने को धोखा तो नहीं दे रहा है। लेकिन अधिक लोग धर्म को भी विस्मरण के लिए ही काम में लाते हैं। उनके कारण ही पृथ्वी धार्मिक नहीं हो पाती।
यह प्रश्न ठीक है। सर्व-स्वीकार परम आस्तिकता है-टोटल एक्सेप्टबिलिटी। सर्व-स्वीकार में कोई दंश नहीं है। कुछ ऐसा नहीं है कि कोई तकलीफ है, इसलिए सब स्वीकार। बल्कि यह स्मरण आ गया है कि एक लहर अगर सागर को स्वीकार न करे, तो व्यर्थ ही परेशान होगी। एक लहर का होना ही सागर का होना है। सागर का अस्तित्व ही लहर में आंदोलित हो रहा है। अगर लहर अपनी इच्छा निर्मित कर ले, तो दुखी होगी, पीड़ित होगी। लहर सागर पर ही सब छोड़ दे, तो चिंता का भार हट जाएगा।
चिंता हमारी यही है कि हम लहर होकर अपने को सागर समझ लेते हैं, लहर होकर सागर के विपरीत खड़े हो जाते हैं। तब अस्वीकार पैदा होता है। तब यह ठीक है और यह गलत, हम निर्णायक हो जाते हैं।
लाओत्से इतना ही कहता है कि निर्णय लहर क्या लेगी! लहर है ही कहां, जो निर्णय ले सके? उसका अलग होना ही नहीं है, सागर का एक हिस्सा है; सागर से ही जन्मी है, सागर में ही लीन हो जाएगी। जन्म को जिस सदभाव से स्वीकार किया है, उसी भाव से मृत्यु को भी स्वीकार कर लेना जरूरी है। दोनों ही सागर का दान हैं। सुख को जिस भांति माना, वैसे ही दुख को भी मान लेना जरूरी है। दोनों ही सागर के दान हैं। इस अर्थ में सर्व-स्वीकार परम क्रांति है, उससे बड़ी और कोई क्रांति नहीं है। क्योंकि तब व्यक्ति की बूंद खो जाती है, और सागर ही रह जाता है।
अब हम सूत्र को लें।
निष्क्रियता लाओत्से के लिए परम सत्य है, आत्यंतिक, अल्टीमेट। लेकिन निष्क्रियता का ऐसा अर्थ नहीं है कि वह परिणामकारी नहीं है। लाओत्से कहता है, निष्क्रियता परम परिणामकारी है। उसके होने से ही घटनाएं घट जाती हैं। एक शांत व्यक्ति आपके पास से गुजर जाए-शांत व्यक्ति, कि जिसके भीतर एक भी तरंग नहीं, एक मौन झील, जिसमें सब शांत हो गया है, जिसके भीतर कोई आंदोलन नहीं, वह आपके पास से गुजर जाए–तो जैसे हवा का एक शांत झोंका आपके पास से गुजर गया हो। वह कुछ करता नहीं है। सिर्फ आपके पास मौजूद था, अचानक आप पाएंगे, आपके भीतर कोई शांति की वर्षा हो गई। शायद आपको खयाल भी न हो कि जो पास से गुजर गया है, उसके कारण। और जो गुजर गया है, उसको तो बिलकुल ही खयाल नहीं होगा कि उसके कारण किसी पर शांति की वर्षा हो गई है। उसकी निष्क्रियता भी, उसकी शून्यता भी परिणामकारी है।
लाओत्से कहता है, श्रेष्ठतम परिणाम शून्यता से आते हैं। क्योंकि शून्यता में कोई हिंसा नहीं है। अगर मेरी शांति आपको छू ले और आप शांत हो जाएं, तो मैंने आपको बदला नहीं, आप बदल गए। लेकिन अगर मुझे चेष्टा करनी पड़े आपको बदलने की और आपको शांत करने के लिए उपाय करने पड़ें, तो मेरे उपाय कितने ही शुभ मालूम हों, उनमें हिंसा होगी ही। क्योंकि जब एक व्यक्ति तय करता है दूसरे को बदलने का, तभी हिंसा शुरू हो जाती है।
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