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________________ ताओ उपनिषद भाग २ जीसस ने कहा है, जीसस ने एक दिन कहा है अपने साथियों को कि देखो लिली के खिले हुए इन फूलों को, सम्राट सोलोमन भी अपनी पूरी गरिमा में इनके सामने फीका है। फूल जब खिलता है तो जिस गरिमा को उपलब्ध होता है, मनुष्य जब खिलता है तब वह भी उसी गरिमा को उपलब्ध होता है। वह गरिमा अकंपता की गरिमा है। जैसे कि किसी घर में दीया जले, हवा का कोई झोंका न हो, और लौ ठहर जाए, जरा भी कंपित न हो; वैसे ही जब कोई चेतना भी भीतर ठहर जाती है और जरा भी कंपित नहीं होती। अब इसके दो उपाय हैं। एक उपाय तो यह है कि पक्ष तो बने रहें, जबर्दस्ती इस चेतना को अकंप कर लिया जाए; जो कि तथाकथित साधु, धार्मिक व्यक्ति करते रहते हैं। पक्ष तो बने रहें कि यह बुरा है और यह ठीक है, और वह सुंदर है और वह कुरूप है, और यह पाने योग्य है और वह नहीं पाने योग्य है, यह तो सब बना रहें; लेकिन अपने को सम्हाल कर और अपनी चेतना को थिर कर लिया जाए। इस तरह जो थिरता आती है, वह जबर्दस्ती थोपी हुई थिरता है, झूठी है। क्योंकि जरा ही रिलैक्स किया, जरा ही शिथिल हुए-पक्ष की तरफ चेतना बह जाएगी, अपक्ष की तरफ से हट आएगी। एक दूसरी गरिमा है, जिसकी लाओत्से चर्चा कर रहा है। वह कह रहा है, खुद की उतनी फिक्र मत करो; ' जबर्दस्ती खुद को ठहराने की फिक्र मत करो। शाश्वत नियम को जान लो, परिवर्तन को पहचान लो, और तुम पाओगे कि पक्ष गिर गए। और पक्ष के गिरते ही तुम अकंप हो जाओगे। क्योंकि कोई जगह न रही जहां कंपो; किसी तरफ झुको, वह कोई स्थान न रहा; किसी तरफ से हटो, वह कोई स्थान न रहा। तब जो अकंपता आती है, वह सहज है। उस सहजता के बिना साधुता भी एक जटिलता है, एक जबर्दस्ती है, एक दमन है। और इसलिए फर्क देखा जा सकता है। जब भी कोई सहजता की साधुता को उपलब्ध होता है, तो एक अपरिसीम सौंदर्य को उपलब्ध होता है। और जब भी कोई जबर्दस्ती साधुता को उपलब्ध होता है, तो एक गहन कुरूपता को उपलब्ध हो जाता है। कुरूपता स्वाभाविक ही आ जाएगी। क्योंकि जहां सब चीजें खींच-तान कर, तनाव से बिठाई जाएंगी, वहां सब चीजें खिंच जाएंगी। सहज साधु खोजना मुश्किल है; यद्यपि सहज ही साधु हो सकता है। लेकिन उसके बड़े चुनाव हैं। एक साधु मेरे साथ यात्रा करते थे। जिस कार में हमें जाना था, मैं जाकर बैठ गया। वे आए और कहने लगे, ऐसे तो मैं न बैठ सकूगा; मैं तो सिर्फ चटाई पर बैठता हूं। इसमें कौन सी कठिनाई है, मैंने कहा। जिनके घर मैं मेहमान था, उनसे मैंने कहा कि लाकर एक चटाई कार के सोफा पर बिछा दो। चटाई बिछा दी गई। साधु बिलकुल सम्हल कर सोफा पर बैठ गए। बीच में चटाई आ गई; परम शांति उनको मिली। सोफा वही है, कार वही है; लेकिन वे चटाई पर बैठे हैं। उनको देख कर दया ही आ सकती है, और क्या हो सकता है! सोफा पर वे बैठे ही नहीं हैं; कार में वे हैं ही नहीं। वे अपनी चटाई पर हैं। और अपनी सादगी को उन्होंने सुरक्षित रख लिया है। ऐसी सुरक्षित व्यवस्था से जो जी रहा हो, उसका सब कुछ कुरूप हो जाएगा; सब अपंग, सब पक्षाघात हो जाएगा। लाओत्से कहता है, निष्पक्ष जो है, वह सम्राट जैसी गरिमा को उपलब्ध होता है। इसमें एक बात और खयाल लेने जैसी है। सम्राट जैसी गरिमा का अर्थ यह हुआ: भागना, छोड़ना, यह नहीं, वह नहीं-उसे कोई अर्थ का नहीं रह जाता; वह जहां है, सम्राट की तरह ही है। उसे महल में खड़ा कर दें तो, और उसे किसी दिन नग्न रास्ते पर खड़ा कर दें तो, उसकी गरिमा में फर्क नहीं लाया जा सकता। महल उसे डराएगा नहीं; वह वहां भी उतनी ही शांति से सो सकेगा। वृक्ष उसे आकर्षित नहीं करेगा; वहां भी उतनी ही शांति से सो सकेगा। न महल आकर्षित करेगा, न वृक्ष विकर्षित करेगा। जो भी हो, जहां भी हो, वह सम्राट जैसी गरिमा में ही जीएगा। 290
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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