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ताओ का द्वार-महिष्णुता व निष्पक्षता
बुरा है, क्योंकि यह आदमी वैसा व्यवहार करता है जैसी अपेक्षा नहीं है। लेकिन अगर मेरी कोई अपेक्षा ही न हो, तो कौन आदमी अच्छा है और कौन आदमी बुरा है? ।
मैं कहता हूं यह आदमी संत है और कहता हूं यह आदमी दुष्ट है। जिसे मैं दुष्ट कहता हूं, वह दुष्ट है या नहीं, मुझे पता नहीं; लेकिन मेरी कुछ अपेक्षाएं हैं, जो वह तोड़ता है। और जिसे मैं संत कहता हूं, वह संत है या नहीं, पता नहीं, लेकिन मेरी कुछ अपेक्षाएं हैं, जिन्हें वह पूरी करता है।
अगर आप अपने संतों के आस-पास जाकर देखें और अपने दुष्टों के आस-पास जाकर देखें, तो आपको पता चलेगा जो आपकी अपेक्षाएं पूरा कर दे, वह साधु। अगर आप मानते हैं कि मुंह पर एक पट्टी बांधने से आदमी साधु होता है, तो मुंह पर पट्टी बांधे मिलेगा तो आप पैर छू लेंगे। वही आदमी कल मुंह की पट्टी नीचे उतार कर रख दे, तो आप उसको घर में नौकरी देने को भी राजी न होंगे। अगर आपकी धारणा है कि...। आपकी धारणा जो भी पूरा कर दे! अगर साधुओं की जांच-पड़ताल करने जाएं, तो आप पाएंगे, उनमें जो आपकी धारणा जितनी पूर्णता से पूरी करता है, उतना बड़ा साधु है। जो थोड़ी-बहुत ढील-ढाल करता है, जो थोड़ा-बहुत इधर-उधर डांवाडोल होता है, वह उतना छोटा साधु है। साधु कौन है? आपकी अपेक्षा जो पूरी कर दे। असाधु कौन है? जो आपकी अपेक्षा तोड़ दे। लेकिन जिसकी कोई अपेक्षा न हो, उसके लिए कौन साधु और कौन असाधु?
लाओत्से यह कहता है, जो शाश्वत को जान लेता है, वह निष्पक्ष हो जाता है। उसके लिए राम और रावण में कोई भी फर्क नहीं है। क्योंकि राम और रावण का जो भी फर्क है, वह हमारी अपेक्षाओं का फर्क है। हम पर निर्भर है वह फर्क। वह हमारा विभाजन है। हमारी धारणाएं काम कर ही हैं। अगर मेरी कोई धारणा नहीं है, तो कोई भी फर्क नहीं है। निष्पक्ष होने का अर्थ है कि अब मेरा कोई चुनाव न रहा। निष्पक्ष होने का यह भी अर्थ है कि अब मैं आपसे नहीं कहता कि आप ऐसे हो जाएं।
एक मेरे मित्र हैं, वृद्ध हैं। उनके बड़े लड़के की मृत्यु हो गई। बड़ा लड़का उनका मिनिस्टर था। और मन ही मन आशाएं थीं कि आज नहीं कल वह मुल्क का प्रधानमंत्री भी हो जाए। जिनके लड़के मिनिस्टर भी नहीं हैं, वे भी अपने लड़कों के प्रधानमंत्री होने की आशा रखते हैं, तो कोई उन पर कसूर नहीं है। उनका लड़का कम से कम मंत्री तो था ही। प्रधानमंत्री भी हो ही सकता था। आशा बांधने में कोई असंगति नहीं थी। फिर लड़का मर गया। वे बहुत रोए-धोए, बहुत पीटे, छाती पीटे। आत्महत्या का सोचने लगे।
मैंने उनसे पूछा, इतनी पीड़ा का क्या कारण है? उन्होंने कहा, मेरा बेटा मर गया! मैंने कहा कि मैं ऐसा समझू, आपका बेटा चोर होता, बदमाश होता, लफंगा होता, बदनामी का कारण होता और फिर मर जाता; आप उसके लिए आत्महत्या करने को राजी होते? उनके बहते आंसू सूख गए और उन्होंने कहा, क्या आप कहते हैं। ऐसा लड़का तो अगर होता तो मैं चाहता कि यह होते से ही मर जाए। तो मैंने कहा, फिर आप यह मत कहें कि आप लड़के के लिए रो रहे हैं। इस लड़के में कोई महत्वाकांक्षा मर गई, कोई एंबीशन। इस लड़के के कंधे पर चढ़ कर आप कोई यात्रा कर रहे थे। क्योंकि यह लड़का जब प्रधानमंत्री होता, तो यह लड़का ही प्रधानमंत्री नहीं होता, आप प्रधानमंत्री के बाप भी हो जाते। बड़ी महत्वाकांक्षा थी। और जो लड़का चोर होता, डाकू होता, बदनामी लाता, तो लड़का ही चोर-डाकू नहीं होता, आप चोर के पिता भी हो जाते। कोई महत्वाकांक्षा इस लड़के के कारण मर गई है। उसके लिए आप रो रहे हैं।
बड़े नाराज हुए कि मैं इतने दुख में पड़ा हूं और आपको ऐसी बात कहते संकोच नहीं आता! मैंने उनको कहा कि इस दुख में अगर सत्य आपको दिख जाए!
कभी-कभी दुख में सत्य को देखना आसान होता है। क्योंकि जब आपने ताश का घर बनाया हो और घर अभी गिरा न हो, तब मैं कितना ही कहूं कि यह ताश का घर है और गिर जाएगा; दिखाई पड़ना मुश्किल है। हवा का
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