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तटस्थ प्रतीक्षा, अस्मिता-विसर्जन व अनेकता में एकता
ऐसा समझ लें कि यहां बिजली के दस बल्ब जल रहे हैं। एक ही बिजली दस में दौड़ती है। एक बल्ब नीला है, और एक लाल है, और एक पीला है। आपको लाल बल्ब से लाल बिजली निकलती हुई बाहर मालूम पड़ती है। नीले से नीली निकलती मालूम पड़ती है। बल्ब व्यक्तित्व है; बिजली एक है।
कृष्ण का शरीर उनका बल्ब है; बुद्ध का शरीर उनका बल्ब है; लाओत्से का शरीर उनका बल्ब है। ये व्यक्तित्व हैं। और भीतर जो स्वभाव है, वह एक है। लेकिन वह आपको दिखाई नहीं पड़ेगा। वह तो जब आप अपने बल्ब के भीतर प्रवेश करेंगे, और जानेंगे कि वह स्वभाव रंगहीन है, न लाल, न पीला, न हरा।
तो जो बुद्ध दिखाई पड़े थे, वह बुद्ध का व्यक्तित्व था; जो कृष्ण दिखाई पड़े थे, वह कृष्ण का व्यक्तित्व था। व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है, आचरण दिखाई पड़ता है, व्यवहार दिखाई पड़ता है। वह जो भीतर घटित हो रहा है, वह दिखाई नहीं पड़ता। बल्ब बदल दें-जहां लाल बल्ब लगा है, वहां हरा लगा दें; और जहां हरा लगा है, वहां लाल लगा दें-तब आपको पता चलेगा कि अरे, जहां लाल रंग दिखता था, वहां अब हरा दिखता है। हमारे हाथ में अगर संभव हो कि बुद्ध के बल्ब को कृष्ण पर लगा दें, कृष्ण के बल्ब को बुद्ध पर लगा दें, तो आप देखेंगेः बुद्ध बांसुरी बजा रहे हैं और कृष्ण चुप होकर बैठे हैं।
लेकिन वह हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन एक बात हमारे हाथ में है कि अपने बल्ब के भीतर हम प्रवेश करके स्वभाव को देखें। तब हम पाएंगे कि उस स्वभाव में सब शांत है, सब मौन है। सब निर्विकार हो गया, सब निराकार हो गया।
लेकिन जब उस निराकार को प्रकट करेंगे, तो इस शरीर का उपयोग करना पड़े, मन का उपयोग करना पड़े। बुद्ध पाली भाषा में बोलते हैं। बोलेंगे ही; वे पाली भाषा जानते हैं। कृष्ण संस्कृत में बोलते हैं। बोलेंगे ही; वे संस्कृत ही जानते हैं। लेकिन सत्य क्या संस्कृत है या पाली? जीसस हिब्रू में बोलते हैं। बोलेंगे ही। अगर कोई ने ऐसा समझा हो कि सत्य संस्कृत में ही बोला जाता है, तो हिब्रू में बोलने के कारण ही असत्य हो गया। लेकिन क्या जब जीसस को सत्य का अनुभव हुआ, वहां भीतर हिब्रू मौजूद है? या जब कृष्ण ने सत्य को जाना होगा, तो वहां संस्कृत रही होगी भीतर? या बुद्ध ने जब सत्य को अनुभव किया, तो वहां पाली थी?
नहीं, वहां न हिब्रू थी, न संस्कृत थी, न पाली थी। वहां तो सब शब्द खो गए, सब भाषा खो गई; वहां तो विराट मौन था, विराट शून्य था। जब सत्य को कोई जानता है, तो सब भाषा खो जाती है। लेकिन जब सत्य को कोई बोलता है, तो किसी न किसी भाषा का उपयोग करना पड़ता है। बुद्ध हिब्रू का उपयोग नहीं कर सकते। और जीसस संस्कृत का उपयोग नहीं कर सकते। और कृष्ण पाली का नहीं कर सकते। यह व्यक्तित्व का हिस्सा है। भाषा व्यक्तित्व का हिस्सा है। विधायक या नकारात्मक ढंग व्यक्तित्व का हिस्सा है। नाचना या मौन हो जाना व्यक्तित्व का हिस्सा है। लेकिन अनुभव उस स्वभाव का व्यक्तित्व के पार है।
लेकिन वह हमें दिखाई नहीं पड़ेगा। उसे हम नहीं समझ पाएंगे। उसे हम तभी देख पाएंगे, जब हम अपने स्वभाव में उतरें, उसके पहले नहीं। भिन्नता दिखाई पड़ेगी ही; भिन्नता है। क्योंकि जहां हम खड़े हैं, वहां से अभिन्नता का कोई दर्शन नहीं हो सकता। अभिन्नता का दर्शन करना हो, तो अपने उस केंद्र पर खड़े होना पड़ेगा, जहां विभिन्नता पैदा करने वाले, भिन्नता पैदा करने वाले सारे कारण तिरोहित हो जाते हैं। फिर वहां कोई भिन्नता न होगी।
ऐसा समझें कि हम यहां सौ कागज के टुकड़े डाल दें-खाली, कोरे। तो उनमें कोई भिन्नता नहीं है। फिर हम सौ लोगों के हाथों में दे दें, और उनसे कहें कि एक-एक आदमी की तस्वीर बना दें। सौ ही लोग आदमी की तस्वीरें बनाएंगे, लेकिन दो तस्वीरें एक सी नहीं होंगी। सौ तस्वीरें हो जाएंगी। आदमियों की तस्वीरें बनाईं, सौ ने ही बनाईं; सौ भिन्न हो गईं। फिर वे कागज के टुकड़े बड़े भिन्न हो गए।
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