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विश्रांति से समता व मध्य मार्ग से मुक्ति
_लाओत्से कहता है, जो ताओ को उपलब्ध होता है, वह हमेशा स्वयं को अति पूर्णता से, टू मच ऑफ परफेक्शन, वह अति पूर्णता से हमेशा अपने को बचाता है। वह सदा मध्य में रह जाता है। न इस तरफ, न उस तरफ-बीच में।
मन है अति। और जहां कोई अति नहीं होती, वहां मन नहीं होता। मन होता है या तो बाएं, या दाएं; मध्य में कभी नहीं। मन या तो होता है राइटिस्ट, या होता है लेफ्टिस्ट; बीच में कभी नहीं। बीच में मन होता ही नहीं।।
अगर हम वीणा की ही बात को ठीक से समझें, तो ऐसा कह सकते हैं कि जब तार बिलकुल मध्य में होते हैं, तो तार होते ही नहीं। क्योंकि जब तक तार होगा, तब तक संगीत में बाधा देगा। लोग आमतौर से समझते हैं कि वीणा जब बजती है, तो तार से संगीत पैदा होता है। गलत है बात। तार से संगीत पैदा नहीं होता, तार की समता से संगीत पैदा होता है।
इसलिए वीणा बजाना सीखना तो बहुत आसान है, वीणा को ठीक तार की अवस्था में लाना कठिन है। वीणा तो कोई सिक्खड़ भी बजा सकता है, लेकिन साज को बिठाना बहुत कठिन है। क्योंकि साज को बिठाने का मतलब है कि तार को समता में लाने की कला चाहिए। और जब भी कोई कुशल हाथ तार को समता में ले आता है, तो बड़ा काम तो हो गया। संगीत तो पैदा कर लेना फिर बच्चे भी कर सकते हैं। लेकिन उस तार को समता में ले आना! ध्यान रहे, जब तार बिलकुल सम होता है, तो तार होता ही नहीं, संगीत ही रह जाता है। और तार जब विषम होता है, तो तार ही होता है, संगीत नहीं होता।
मन जब अति में होता है, तो मन होता है। और जब अति खो जाती है, मध्य होता है, तो मन होता ही नहीं। चैतन्य, चेतना, आत्मा ही शेष रह जाती है।
ऐसा जो व्यक्ति है, लाओत्से कहता है, वह क्षय को और पुनर्जीवन को उपलब्ध नहीं होता।
जो इस मध्य में ठहर गया, वह अमृत में ठहर जाता है। दोनों अतियों की मृत्यु है, मध्य की कोई मृत्यु नहीं है। दोनों अतियों पर तनाव है। तनाव है, इसलिए क्षय होगा। तार बहुत कसे हों, तो टूट जाएंगे। और तार बहुत ढीले हों और कोई खींचतान कर संगीत पैदा करने की कोशिश करे, तो भी टूट जाएंगे। तार जितनी समता में होंगे, उतना ही टूटना असंभव है। तनाव नहीं है, तो टूटने का उपाय नहीं है। तनाव ही तोड़ता है।
तो लाओत्से कहता है, 'वह क्षय और पुनर्जीवन...।'
क्षय समाप्त हो जाता है। जहां क्षय समाप्त हो गया, वहां मृत्यु असंभव है। मृत्यु समस्त क्षय का जोड़ है। रोज-रोज क्षय होता है; फिर मृत्यु सब का जोड़ है। जो इस भीतर की समता को अनुभव कर लेता है, वह क्षय को भी उपलब्ध नहीं होता, मृत्यु को भी नहीं।
शरीर तो जाएगा; क्योंकि शरीर अतियों में ही जीता है। जन्म एक अति है, मृत्यु दूसरी। मन भी जाएगा; क्योंकि मन भी अति में जीता है। भोग-त्याग, मित्रता-शत्रुता, प्रेम-घृणा, ऐसा ही जीता है; संसार-मोक्ष, ऐसा ही जीता है। वह भी अति में ही जीता है, वह भी जाएगा। लेकिन भीतर एक तीसरी स्थिति भी है, जो समता की है। सम होते ही उसका पता चलता है। उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है। और जहां मृत्यु नहीं, वहां फिर पुनर्जीवन नहीं है।
लाओत्से बिना आवागमन की बात किए इस सूत्र में कहता है कि आवागमन से छूट जाने का यह उपाय है। दो बातें कही हैं : कर्म में समग्रता, ताकि विपरीत अवस्था में सहज प्रवेश हो; स्वयं में मध्यता, ताकि कोई तनाव पैदा न हो। और जीवन में क्षय और मृत्यु असंभव हो जाएं।
आज इतना ही। पांच मिनट बैठेंगे, कीर्तन में सम्मिलित हों।
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